Thursday, July 31, 2008

मेरे नन्हे से प्यारे ख्वाब !!!



मेरे नन्हे से प्यारे ख्वाब।
क्या तुम मेरे जैसे हो ?
मेरे प्यार के ऐ निशाँ।
क्या तुम मेरे जैसे हो ?

मेरी साँसे तुम्हारी साँसे।
बन के ये कैसे रहती है ?
मेरी आहें तुम्हारी आहें।
बन के ये कैसे बहती हैं ?


तुम अजनबी से वजूद।
कैसे मेरे वजूद में समाये हो ?
तुम नन्हे से रिश्ते।
कैसे मेरी जिंदगी में आए हो ?

मेरे भीतर का ये खून।
तेरी रगों में कैसे बहता है ?
मेरे प्यार का असर।
तेरी जिगर में कैसे रहता है ?

तुम बिनदेखी हकीक़त।
क्या कोई खुदा हो ?
तुम मांगी हुई मन्नत ?
क्या कोई फ़रिश्ता हो ?

मेरे नन्हे से प्यारे ख्वाब...

भावार्थ...


ये रात ....

रात जब जवान हुई तो ।
उसने तारो को धीमे से बुलाया।
चाँद को बीच में रख सबके।
उसने अपना शामियाना बिछाया।
ये रात जो कई मायिने लिए जीती है।
किसी की हसरत होती है रात।
किसी का सजर होती है रात।
जिंदगी का आराम होती है रात।
ये रात जो श्याम रंग पहने है।
ये रात जिसके ये तारे गहने हैं।
किसी दुल्हन की तरह गठरी बनी बैठी है।

कोई आए और इसके आगोश में।
अपने सारे गम भूल जाए.
खुश्क
रिश्तो का मलहम होती है रात।
सुबह का आगाज़ होती है रात।
दिन का अंजाम होती है रात।

भावर्थ...

Wednesday, July 30, 2008

इन्कलाब क्या है !!!

इन्कलाब क्या है !!!
कितने ही अबतक अतीम बन गए।
कोई कर्ज की बलि चढा।
तो कोई अपनों की हिफाज़त की।
कोई भूख की चपेट में आ गया।
तो कोई हमसफ़र की तलाश में।
किसी को कोई सुनने वाला न था।
तो किसी को कोई अपनाने वाला न था।
इन्कलाब हलक से भी न निकला।
गला ख़ुद इतना प्यासा था।
कितने इन्कलाब सोच में दफ़न हैं।
और कितने बस जीने की धुन में।
खैर आदमी तो जी ही रा है न।
इन्कलाब तो एक जज्बा है ।
इन्कलाब जो अब मर चुका है !!!
इन्कलाब
और कुछ भी नहीं !!!

भावार्थ...

Monday, July 28, 2008

जब "अख्तर" के घर तलाशी चली !!!

आज "अख्तर" के घर तलाशी चली।
बम पे बम फोड़ने वाले।
करोडो दिलो को तोड़ने वाले।
साजिशों का जामा ओढ़ने वाले।
उसी "अख्तर" के घर तलाशी चली।

उसके खंडहर से लगते घर की तलाशी चली।
जहाँ खूंखार साजिशें रची गई होंगी।
जहाँ बमों की जगहे तय की गई होंगी।
जहाँ खून की लड़ियाँ पिरोई गई होंगी।
उस "अख्तर" के घर की तलाशी चली।

पर
न " अख्तर" मिला न बमों का "निशान"।
न "साजिश" मिली न "बगावत" की पहचान।

मिला
तो साबुत नमक, और एक टूटी हुई सिल।
आधी अनाज की बोरी, और कुछ मुट्ठी तिल।
एक बक्सा, जिसमें कुछ जनाना कपड़े थे।
और एक खूटी जिसपे कुछ मरदाना कपड़े थे।
दो तीन प्याज मिली और कुछ सड़े हुए आलू मिले।
फूकनी, कर्छनी, और कुछ कांस के बर्तेन पुराने मिले।
बारिश की सीलन से चार दीवारी टूटती मिली।
गरीबी की आहट हर नज़ारे से फूटती मिली।
और हाँ एक कोने में रखी "कुरान-ऐ-शरीफ" !!! मिली।
जिसकी हर एक आयत खंडहर में डोलती मिली।

पर
न बम मिले और न बमों की कोई साजिश मिली।
जब जब आतंकी "अख्तर" के घर तलाशी चली।

भावार्थ
...

Sunday, July 27, 2008

कोमौ का इंतेशार !!!

कोमौ का इंतेशार न जाने कब ख़तम होगा।
अमन का इन्तेज़ार न जाने कब ख़तम होगा।

अब तो लोग ख़ुद गुस्से की तरह फट पड़ते हैं।
ये अजीब सिलसिला न जाने कब ख़तम होगा।

कैसे लोग आजकल रिस्तो के खंडहर में रहते हैं।
जुमूद का ये कोहरा न जाने कब ख़तम होगा।

जहाँ इंसान को हैवान बनने मं देर नहीं लगती।
वहां पत्थरो को पूजना न जाने कब ख़तम होगा।

कतरा कतरा बेखुदी का दर्द अब सहा नहीं जाता।
यह रिस रहा मेरा वजूद न जाने कब ख़तम होगा।

भावार्थ...

'माझी'....

मेरा वो रुका 'माझी' जिसमें तेरी यादें दफ़न थी।
आज कल वही आँखों में सैलाब लाने लगा है।

पत्तो
की तरह उड़ गए थे मेरे अरमान जिसमें।
वही तूफ़ान मेरे रास्ते में लौट के आने लगा है।

कोई गिला शिकवा न रहे मौत के आगोश में।
नादान उसके जुल्म का हिसाब लगाने लगा है।

जिन हाथ की लकीरों को अपना मुकद्दर समझा।
उनका वजूद भी हथेली से कोई मिटाने लगा है।

लौटना मुमकिन नहीं बीते लम्हों के दरीचे में।
हर शख्स यही सोच कर 'माझी' को भुलाने लगा है।

भावार्थ...

Saturday, July 26, 2008

मुन्तजिर...

खुली आँखें तेरा सिजदे को बेकरार।
अब पत्थर हो चली हैं।
मेरी आगोश की प्यासी ये बाहें।
अब बेहोश हो चली हैं।

साँसे जो तेरी आहट बन गई थी।
ख़ुद को मिटता देख रही है।
ये मेरी हस्ती जो मिटती न थी।
ख़ुद को लुटता देख रही है।

कतरा कतरा बंट गया मेरा जैसे।
कोई खजाना लुट गया हो
कोई पतली सी डोर थी दोनों में।
जिसका हर धागा कहीं टूट गया हो।

तेरी याद के अश्को अब तक बहते है।
इश्क ये क्या दिल-ऐ-हाल कर गया है।
मुझे लगता रहा की तू आएगी।
किसी ने कहा कोई "मुन्तजिर" मर गया है।

भावार्थ...

Friday, July 25, 2008

जिंदगी खाब हो तो जीना आसां है।
अरमा घुट भर हो तो पीना आसां है।

लेकिन ख्वाइशों के तूफ़ान आते हैं।
इतने में मैं संभल भी नहीं पाता ।

हर पेड़ भी इंसान की तरह दूसरे से जुदा है !!!

हर पेड़ भी इंसान की तरह दूसरे से जुदा है।
लगता है इनमें भी हमारी ही तरह खुदा है।

कुछ बगीचे में उगते है तो कुछ वीरानो में।
कुछ रेतो में तो कुछ हरे-भरे मैदानों में।

कुछ बागो में अपनों के बीच निखरते हैं।
तो कुछ तनहा कहीं जिंदगी बसर करते हैं।

कोई फूल से सवारने का हुनर रखता है।
तो कोई कांटो से अपना सजर रखता है।

कोई उनमें से पूजा और खुदा माना जाता है।
तो कोई दूर खड़ा कहीं "अछूत" कहा जाता है।

भावार्थ...

खैतान का पंखा !!!


मेरा खैतान का पंखा चलते चलते रुक गया।
मैं गहरी नींद में था फ़िर भी चौंक के उठ गया।

सोचने लगा ये पंखा जो कितनी ही रफ्तारों से चला है।
आज क्यों अचानक मेरी नींद को तोड़ बीच मैं खड़ा है।

ये रुका तो मेरा ख्वाब मुझे छोड़ निकल गया।
यही सोच मैं साढ़े पाँच बजे सैर पे निकल गया।

सामने पार्क मैं पके बाल वालो की तादाद ज्यादा थी।
नई फसल ख्वाब की चादर ओढे सोने पे आमदा थी।

मैंने सोचा ये लोग कभी तो रातो को जगे होंगे।
सुबह देर से उठकर अपने काम पे भागे होंगे।

शायद तभी आदमी जो नहीं होता उसी को पाने को भागता है।
जो सुबहें पहले न मिली उनको पाने अब रोज सुबह जागता है।

उनकी धीमी हुई रफ्तार मुझसे कहने लगी।
इंसा की हालत कहीं पंखे सी तो न होने लगी।

कहीं यह भी अचानक चलते चलते से तो न रुक जायेंगे।
इनके ख्वाब तो मेरी तरह सैर को भी न निकल पायेंगे।

भावार्थ...

उरूसी...किश्वर नहीद

मैंने तनहा सेकदों राते गुजारी जागकर ये सोचते।
किस तरह होगी उस वस्ल की शब् की सहर।
जिस शब् की आखो की चुभन
नींद की खुश्बो की बाँहों से लिपट के सो रहे।
मैंने बचपन से ही पूजा था दुल्हन का अक्स रंग।
जमनी रुखसार की रंगत, महक उबटन कलम।
शोला ला रू शोला नफस।
सिमटी सिमतायी से गठरी की तरह बैठी हुई।
मैंने बचपन से चाह था की दुल्हन बन जाऊं।
चम्पई रंगत को गहरे शोलारू कपड़ो में ऐसे धाप लो।
मेरा चेहरा मेरी सकियाँ ढूढने बैठे तो थक के हस पड़े।
मुझको गठरी की तरह देखे तो ढोलक थाम ले।
में दुल्हन ऐसी बनी लेकिन की न मेहँदी थी न अफ्सा।
और न उबटन का खुमार।
आँखों में काज़ल की तहरीर भी
अपनों से जुदाई के गम में धुल गई।
और रह गई उस तरफ़ की खुशबू की जिसके नाम पे।
खून के रिस्तो को भी नई जिंदगी समझ नहीं।
और फ़िर खुशबू से रिश्ता पाबक है।
ख्वाब के मानिंद जीन पाबक है।

किश्वर नहीद...

Thursday, July 24, 2008

मेरा माजी !!! मीना कुमारी

मेरा माजी !!!
मेरी तनहा’ई का ये अंधा शिगाफ
ये के साँसों की तरह मेरे साथ चलता रहा।
जो मेरी नब्ज़ की मानिंद मेरे साथ जिया
जिसको आते हु’ऐ जाते हु’ऐ बे-शुमार लम्हे
अपनी संग्लाख उँगलियों से गहरा करते रहे, करते गए
किसी की ओक पा लेने को लहू बहता रहा
किसी को हम-नफस कहने की जुस्तुजू में रहा
को’ई तो हो जो बे-साख्ता इसको पहचानता
तड़प के पलटे, अचानक इसे पुकार उठे।
‘मेरे हम-शाख्मेरे हम-शाख मेरी उदासियों के हिस्सेदार
मेरे अधूरेपन के दोस्तमेरे अकेलेपन।
तमाम ज़ख्म जो तेरे हैं मेरे दर्द तमाम
तेरी कराह का रिश्ता है मेरी आहों से।
तू एक मस्जिद-ऐ-वीरान है, मैं तेरी अजान।
अजान जो अपनी ही वीरानगी से टकरा कर।
थकी छुपी हु’ई बेवा ज़मीन के दामन पर।
पढ़े नमाज़ खुदा जाने किसको सिजदा करे’....


मीना कुमारी...

Wednesday, July 23, 2008

कौन सी चाहत है मुझे जो नसीब नहीं !!!

कौन सी चाहत है मुझे जो नसीब नहीं।
मंजिल पे हूँ पर मंजिल के करीब नहीं।

खरीद सकता था जो बाज़ार में मौजूद था।
ढूढता फ़िर रहा हूँ जो वहां हासिल नहीं।

जिंदगी
जीने का हर सलीका मिल गया।
खुशी भर देनी की पर कोई तरकीब नहीं।

हँस के मिलते है मुझसे ये दुनिया वाले।
चंद लम्हे अपने दे ऐसा कोई रकीब नहीं।

चल पड़ी है मेरी जिंदगी अब दरिया बनके।
रोक ले इसको जमाना ये तो मुनासिब नहीं।

भावार्थ...

Tuesday, July 22, 2008

रोज मर के न जाने मैं कौन सा सुकून पाता हूँ !!!



रोज मर के न जाने मैं कौन सा सुकून पाता हूँ।
बुझ के हर रात मैं सुबह कहाँ से जूनून लाता हूँ।



दो जून का हिसाब का तो कब का हो गया लेकिन।
अब तो मैं सिर्फ़ अपनी तलब के लिए कमाता हूँ।

रोंगटे मेरे खड़े हो जाते हैं भीड़ की चीख सुन के।
फ़िर भी रोज जाकर उसी भीड़ में समां जाता हूँ।

मुझे पता है उनके भीतर का इंसान कबसे दफ़न है।
मैं हस के मिलता हूँ और उनकी तरह हो जाता हूँ।

पता नथा मुझे झूठे मौसम का लुफ्त कैसे उठाते हैं।
अब मैं कसम और वादों को तोड़ रोज मुस्कुराता हूँ।

मंडी, मिलो की ओर कूंच करते हैं जो कीडो की तरह।
भूखे पेट की खातिर मैं रोज उनसे जाके मिल जाता हूँ।

भावार्थ
...

Monday, July 21, 2008

सोचती हूँ कि न जाने लोग क्या कहेंगे !!!





मुझे कैद से निकलने ख्याल नहीं आता।
सोचती हूँ कि न जाने लोग क्या कहेंगे।

घुटती रहती हूँ रिस्तो के धुएँ में चुप चाप।
सोचती हूँ कि न जाने लोग क्या कहेंगे।

सीता कि तरह समां जाऊं जी करता है।
सोचती हूँ फ़िर कि लोग न जाने क्या कहेंगे।

आहें रोक लेती हूँ जब मेरे कतरे किया जाते हैं।
सोचती हूँ कि ये लोग न जाने क्या कहेंगे।

खामोशी से अफसाना,नज़रना बनती रही हूँ।
यही सोच कर कि न जाने लोग क्या कहंगे।

जिंदगी को एक आदत सा मान लिया मैंने।
यही सोच कर कि न जाने लोग क्या कहेंगे।

भावार्थ...

क्यों मुझे कैद नहीं करते वो !!!

मुझे उम्मीद के आखरी पड़ाव पे मंजिल के निशाँ मिले।
मुझे तन्हाई में अपने उस पहले प्यार के निशाँ मिले।

क्यों मुझे कैद नहीं करते वो।
क्यों मुझे कैद नहीं करते वो।

में तो अब रोज जुल्म पे जुल्म करता हूँ।
अपने निश्तर से अपना कत्ल करता हूँ।

कोई नहीं आता मुझे रोकने।
कोई नहीं आता मुझे टोकने।

फ़िर वही लहू को ख़ुद से जुदा करने की कोशिश।
हलक से उठती चीख को जुदा करने की कोशिश।

क्यों नाकाम कर जाते है वो।
क्यों मुझे कैद नहीं करते वो।

हर जर्रा मेरे ख़िलाफ़ गवाही देगा।
हर सुबूत ख़ुद की पेश्गायी देगा।

तुम रुको तो सही इन सब के मंसूबो को जाया जानो।
ढल चुकी जिंदगी को उसकी यादो का सरमाया जानो।

सब ख़िलाफ़ है मेरे उसके मिलने से।
सब नाराज़ है मेरे उसके उलझने से।

क्यों मुझे मौत नहीं देते वो।
क्यों मुझे कैद नहीं करते वो।

भावार्थ...

सोचता हूँ जब तू आएगी तो किस तरह से आएगी।



सोचता हूँ जब तू आएगी तो किस तरह से आएगी।
किस तरह से मुझको ख़ुद के आगोश में समाएगी।

कैसे अँधेरा मेरी साँसों में धीमे से उतर जाएगा।
कैसे नूर-ऐ-खुदा मुझे हर मंजर में नज़र आएगा।

कैसे तू मुझे मेरे ढलते वजूद से जुदा कर देगी।
कैसे तू मुझे रिश्तो के कैद से आजाद कर देगी।

कैसे तू मुझे उखड़ते ही अपनी रूह में ठिकाने देगी।
कैसे तू मेरे अधूरे सपनो को नए आशियाने देगी।

कैसे तू मुझे अपनों के इन काफिले से चुरा लेगी।
कैसे तू मेरी जीने की तमन्ना के गले को दबा देगी।

कैसे जिंदगी को आख़िर लम्बी सी नींद आएगी।
सोचता हूँ मौत तू अगर आएगी तो कैसे आएगी।

भावार्थ...

Sunday, July 20, 2008

मैंने अपनी उम्मीदो के मेयार बदले !!!

में जो ख़ुद को न बदल पाया तो।
मैंने अपनी उम्मीदो के मेयार बदले।

रास्ते ही मेरे होसले लील गए।
मंजिल पे मैंने अपने इरादे बदले।

आदतें जैसे अब नब्ज़ बन गयी थी।
मैंने अपने सुधरने के ख्याल बदले।

सब कुछ खो कर मैंने जिसे पाया।
हालत देख मेरी उसके मिजाज़ बदले।

भावार्थ...

हुनर सिखा दे मुझको !!!




मुझको सिलने का हुनर सिखा दे दर्जी ।
अब बेवफा और ये चाक बढ़ने लगे हैं।

मुझको बुनने का हुनर सिखा दे जुलाहे।
लोगो के सपने टूट-टूट कर गिरने लगे हैं।

मुझको ढालने का हुनर सिखा दे कुम्हार।
रिश्तों के सांचे टूट कर बिखरने लगे हैं।

मुझको गढ़ने का का सिखा दे नक्काश।
खुदा अब पत्थरो से बहार निकलने लगे हैं।


मुझको सहने का हुनर सिखा दे राँझा।
अब नाकामियाबिओं के मौसम आने लगे हैं।

भावार्थ...

खुदाई का आलम !!!

दोनों का आशियाँ उसी खुदा ने बनाया है।
उसके यहाँ 'कुछ' रखने की और
मेरे यहाँ 'कुछभी' रखने की जगह नहीं मिलती।

लोग परेशान है हमारे रिश्ते के होने पे।
उसके दामन पे दाग नहीं मिलता
और मेरे दमन पे नेकी नहीं मिलती।

इज़हार करें तो करें कैसे खुदा तू ही बता जरा ?
उसको लम्हों की फुर्सत भी नहीं मिलती
और मुझको एक मोहलत नहीं मिलती।

तकदीर कुछ सोच के बैठी है लगता है।
जब उसकी नज़र मुझसे मिलती है
तो मेरी नज़र उससे नहीं मिलती।

ये खुदाई का आलम नही तो और क्या है।
उसे उड़ने को आसमान नहीं मिलता और
मुझको दफन होनेको जमी नहीं मिलती।

भावार्थ
...

Friday, July 18, 2008

बेसुध अमीरों के लिए !!!


कोई तहजीब ओढ़ लो , कोई कायदा पहन लो।
बाज़ार सज चुका है अब बेसुध अमीरों के लिए।

ग़ज़ल गाती रहे और कली मुस्कराती रहे।
मय नशा लहराती रहे इन बेसुध अमीरों के लिए।

तकलीफों को ढक रखो, न चोट को उघारो तुम।
सजा लो तपती माटी को बेसुध अमीरों के लिए।

लिबास को न शर्म हो, न गहनों को हया रहे।
ये सब जमी पे उतरते रहे बेसुध अमीरों के लिए।

रात मुँह फेर लो, चांदनी फलक मोड़ लो ।
वजूद न अब रहे वजूद बेसुध अमीरों के लिए।

भावार्थ...

उसने नाराजगी के नए बहाने ढूढे !!!


आज उसे मेरी कोई बात चुभ गई शायद।
तभी उसने नाराजगी के नए बहाने ढूढे।

अहिस्ते
से उसकी खामोशी दूरी बन गई।
फ़िर उसने न मिलने के कई बहाने ढूढे।

चिराग बुझ गया रात तो अभी बाकि थी।
धीरे से वीराने ने रिश्ते में मेरे ठिकाने ढूढे।

मैं तो चलता पर फासला अभी काफ़ी था।
कड़कती बिजली ने मेरी तरफ़ ही निशाने ढूढे।

उसके जाने का गम मिट भी न पाया था।
उसके हर इक जिक्र ने चाक मेरे पुराने ढूढे।

भावार्थ...

Thursday, July 17, 2008

कहीं खो सी गई !!!


यादों के समुंदर में।
बीते लम्हों की बूंदे ।
कहीं खो सी गई, कहीं खो सी गई।

वादों के पुलिंदे में।
मेरी वो दिल की कही।
कहीं खो सी गई, कहीं खो सी गई।

नजारो की नज़र में।
वोह प्यार की नज़र।
कहीं खो सी गई, कहीं खो सी गई।

बेवफाई की मौसम में।
वफाओ की अगन।
कहीं खो सी गई, कहीं खो सी गई।

बेगानों के काफिले में।
मेरे प्यार की शख्शियत
कहीं खो सी गई, कहीं खो सी गई।

उसके निशाँ ढूढने में।
उसकी दी हर निशानी।
कहीं खो सी गई, कहीं खो सी गई।

भावार्थ..

Wednesday, July 16, 2008

न जाने क्यों ?


ख्वाइशै रूठी है मुझसे।
अरमान गुमसुम से हैं।
न जाने क्यों ? न जाने क्यों ?

बातें चुप सी बैठी हैं मेरी।
चाहतें छुप सी गई हैं कहीं।
न जाने क्यों ? न जाने क्यों ?

वफ़ा आगोश में नही मेरे।
प्यार मुँह फेर कर बैठा है।
न जाने क्यों ? न जाने क्यों ?

मीठी यादें बुत बन गई।
साया
मुझसे नाराज है मेरा
न जाने क्यों ? न जाने क्यों ?

ख्वाइशै रूठी है मुझसे।
अरमान गुमसुम से हैं।
न जाने क्यों ? न जाने क्यों ?

भावार्थ..

Saturday, July 12, 2008

कोई आया और जमीन चीर के चल दिया !!!



कोई आया और जमीन चीर के चल दिया।
कितने रिश्ते कितने वादे तोड़ के चल दिया।

इतनी सुबह आया की रात जगी भी न थी।
बच्चो की नींद को कोख में ही घोंट दिया।

पेड़ की साखें बहक भी न पायी उस दरमियाँ।
परिंदे को आखरी परवाज़ का भी न मौका दिया।

खामोशी उतनी की उतनी रही कद में।
वो कुछ सपनो को बस दफना के चल दिया।

खुदा का नाम भी क्या लब पे आता।
चीखो को उखड़ने का भी न हौसला दिया।

कोई आया और जमीन चीर के चल दिया।
कितने वादे कितने रिश्ते तोड़ के चल दिया।

भावार्थ...

एक एहसास की प्यास मुझे यहाँ ले आई !!!


एक एहसास की प्यास मुझे यहाँ ले आई।
तुझसे मिलने की आस मुझे यहाँ ले आई।

में
कब सारे रिश्ते छोड़ आया।
कब सारे बंधन वो तोड़ आया।

मेरी
शख्शियत एक धागे से खिची आई।
एक एहसास की प्यास मुझे यहाँ ले आई।

कब साँस छूटी मुझे क्या पता।
कब उम्मीद टूटी मुझे क्या पता।

ये तेरी नज़र सारे मंजर सामने ले आई।
एक एहसास की प्यास मुझे यहाँ ले आई।

न गर्मी न सर्दी न कोई एहसास।
गले में आकर रुकने लगी थी प्यास।

जिंदगी को झूल कर बस तेरी याद आई।
एक एहसास की प्यास मुझे यहाँ ले आई।

भावार्थ...

Friday, July 11, 2008

इस भीड़ का रुख बदलता क्यों है !!!

इस भीड़ का रुख बदलता क्यों है।
अरमानो का दम घुटता क्यों है।
कोई आए और मुझे जला जाए।
पर आज ये सूरज बुझता क्यों है।

ये शाम आज फ़िर काली क्यों है।
रात आज ये फ़िर खली क्यों है।
ये हैवानियत जो भीतर सोती रहती है।
कोई उसको रात को जगाता क्यों है।

एक नाम को इतने नामो से जपता क्यों है।
कोई भगवन तो कोई खुदा कहता क्यों है।
आँख मूँद के एक रौशनी नज़र आती है।
कोई लौ तो कोई उसे नूर समझता क्यों है।

जिसको देखो रिश्तो में बंधासा क्यों है।
बोझ जो उठता नहीं उसे उठता क्यों है।
कौन सी वफ़ा चाहिए इसे काफिर से।
जहर उगलने वालो को दूध पिलाता क्यों है।

भावार्थ...

Friday, July 4, 2008

फ़िर भी जिंदगी दिशा ढूढती है !!!

हर तरफ़ एक दिशा है।
फ़िर भी जिंदगी दिशा ढूढती है।

यु तो मुस्कराहट तैरती है।
फ़िर भी नज़र मेरी खुशी ढूढती है।

मंजिल करीब सी लगती है।
फ़िर भी नौका मेरी किनारे ढूढती है।

दर्द भर देती है जिसकी यादें।
फ़िर भी रातें उसी के निशाँ ढूढती है।

भावार्थ
...

Thursday, July 3, 2008

मैं उसे एकतरफा प्यार कहता रहा !!!


मैं इन तमन्नाओ के घुट पीता रहा।
और बस इश्क के नशे मैं जीता रहा।

सब नज़ारे धुप बन कर ढलते रहे।
मैं सपनो के महल बस बुनता रहा।

जिंदगी मुझसे दिल्लगी करती रही।
और मैं जिंदगी से दिल्लगी करता रहा।

चेहरा न बन सका मेरे जेहेन में आख़िर।
मैं गुमनामी के आसमा तले चलता रहा।

जब भी इज़हार-ऐ-इश्क लडखडाया।
मैं उसे एकतरफा प्यार कहता रहा।

भावार्थ...

आग इतनी प्यासी थी !!!



आग
इतनी प्यासी थी।
की लोग जलते रहे, रोते रहे।
पर वो न रुकी बस बढती रही।

आलम कुछ ऐसा था।
चीखे उठ कर गिरने लगी।
हा-हा कार मुह खोलती रही।

पानी ख़ुद भुन रहा था।
बुझाने के लिए वो जलता रहा।
उसकी भाप बस युही बनती रही।

सब कुछ एकसमान था।
इंसान, सामन सब जलता रहा।
मिटटी की मिटटी से दूरी मिटती रही।

सब कुछ स्वाह हो गया।
सब का वजूद जल चुका था।
आग प्यासी सी फ़िर भी धधकती रही।

भावार्थ...

Wednesday, July 2, 2008

क्योंकि एक तू ही नहीं है...!!!



ये यादें हैं , बरसाते हैं।
तेरी दी सब सौगातें हैं।
क्योंकि एक तू ही नहीं है...

ये आँसू हैं, ये आहें हैं।
एहसासों की बाहें हैं।
क्योंकि एक तू ही नहीं है...

ये हिज्र है ये कसक है।
तन्हाई हर पल एक है।
क्योंकि एक तू ही नहीं है...


ये चुभन है, अगन है।
और ये जलाती जलन है।
क्योंकि एक तू ही नहीं है...

ये साँस है ये एहसास है।
पर जीने का न कोई आस है।
क्योंकि एक तू ही नहीं है...

भावार्थ...




Tuesday, July 1, 2008

आख़िर क्यों ?

आख़िर क्यों ?

क्यों जुबान सामर्थ्य से बंधी है।
क्यों मुस्कान हासिल से जुड़ी है।
क्यों रिश्ते कर्ज चुकाना सा है।
क्यों मर जन आसान सा है।
आख़िर क्यों ?

क्यों भूख आखों में आँसू भरती है।
क्यों जुदाई ये गला मेरा भरती है।
क्यों अरमान भूल ले आते हैं।
क्यों लोग एकतरफा प्यार पाते है।

आख़िर क्यों ?

क्यों अफ़सोस पलके भिगोता है।
क्यों कभी जोश रुयें खड़े करता है।
क्यों चुभन मुह में आह भर देती है।
क्यों तलाश नए आसमान खोज लेती है।

आख़िर क्यों ?