Monday, June 9, 2008

आगोश में ले जो वोही किनारे ढूढती है !!!

कोरी सी जिंदगी मेरी बहारे ढूढती है।
ख्वाबो के ये मौसम हजारो ढूढती है।

सुबह को बढ़ फलक छूने की चाहत।
बादलों में न कितने नज़ारे ढूढती है।

धुप जो झर झर बरसती है दिन पे।
जलन उसकी जैसे ठिकाने ढूढती है।

थकी शाम अरमानों की आख़िर यहाँ।
आगोश में ले जो वोही किनारे ढूढती है।

जिंदगी की रात ढलते ढलते क्यों जाने।
ख़ुद को सिमेटने के सिरहाने ढूढती है।

भावार्थ...