Friday, May 9, 2008

पेडो की सिसकियाँ रात भर सुनी मैंने।

पेडो की सिसकियाँ रात भर सुनी मैंने।
सुबह तलक रोते रहे और कहते रहे वो।
न जाने कौन सी बद्दुआ मिली है हमको।
न कह सकेकुछ और न ही चल सके वो।
दायरा उनका कहाँ है वो तो हवा का है।
उनके पत्ते उसी के साथ उड़ते जाते हैं।
न त्यौहार न जश्न बस एक लम्बी उदासी।
जिंदा होने का एहसास इससे बुरा क्या होगा।
न ख़ुद को बचा सकते न ख़ुद को मिटा सकते।
कोई भी आए औजार उठाये और हस्ती मिटाए।
और वो चुप चाप अपनी बलि देते हैं। ....

4 comments:

Anonymous said...

bahut hi gehre bhav,ped na dard keh sake na chal sake,bahut hi badhai.

Ajay Kumar Singh said...

Thanks a lot mahek ji..I love to read uor poems as well...

Renu Sharma said...

parkirti ka maanviy karan yahi hai ,tabhi tum itana bahtareen likh paate ho.

Ajay Kumar Singh said...

Thanks a lot...