Thursday, April 17, 2008

अपने हर हर लफ्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊगा।

अपने हर हर लफ्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊगा।
उस को छोटा कह मैं कैसे बडा हो जाऊगा।

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नही।
मैं गिरा तो मसला बन कर खडा हो जाऊगा।

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफर।
रास्ता रोका गया तो काफिला हो जाऊगा।

सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अहद-ऐ-वफ़ा।
एक तेरे कहने से क्या मैं बेवफा हो जाऊगा।
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लहू न हो तो कलाम तरजुमा नही होता
हमारे दौर में आनसू ज़ुबा नही होता

जहा रहेगा वही रौशनी लुतायेगा ।
किसी चराग का अपना मकान नही होता

ये किस मकाम पे लाई है मेरी तन्हाई ।
कि मुझ से आज कोई बादगुमा नही होता।

में उस को भूल गया हू ये कौन मानेगा ।
किसी चराग के बस में धुआ नही होता ।

'वासिम' सदियों की आन्खो से देखिये मुझको।
वो लफ्ज़ हूँ जो कभी दासता नही होता।
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वसीम बरेलवी...

1 comment:

समयचक्र said...

बहुत सुंदर