Sunday, March 2, 2008

ये हिज्र कुछ तो मुख्तसर कर दे !!!

खुदा फ़िर वोही हवादिस कर दे।
उससे मिलना मुनासिब कर दे।

शब-ऐ-गम अब सहा नहीं जाता।
ये हिज्र कुछ तो मुख्तसर कर दे।

उसकी बेरुखी अजाब-ऐ-हयात है।
ये इन्तिशार अब तो ख़तम कर दे।

साल लील गए जिस रूमानियत को।
वो वल-वाला-ऐ-इश्क फ़िर भर दे।

वो बेवफा बन जाए तो बेहतर है।
पर इस जुमूद को यू बेअसर कर दे।

भावार्थ...

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