Monday, March 31, 2008

ये दौर !!!

ये दौर जो शौकत और शान का है।
ये दौर खुदा से ताकतवर इंसान का है।
ये दौर जो ऊँचे सपनो की उड़ान का है।
ये दौर जो ऊँचे ऊँचे मकान का है।

तो ये दौर कई उठते सवाल का है।
बिगड़ते हुए इंसान के हाल का है।
रिश्तो के हुए इस बद-बेहाल का है।
मौत से पहले आए उस काल का है।

यही दौर जो पैसे की बरसात का है।
दिन जैसी जगमगाती रात का है।
बीमारियों से मिली निजात का है।
हर सू छाई खुशी की सौगात का है।

ये दौर दूर तक फैली गरीब आबादी का है।
पैसे की गुलामी में छिनी आज़ादी का है।
तन्हाई से टूटे इंसान की बर्बादी का है।
अपनों से दूर कहीं रोती बूढी दादी का है।

ये दौर जो गम को मिटाती शराब का है।
हर तरफ़ बाज़ार में मौजूद शबाब का है।
रंगीन और खुशनुमा उस नकाब का है।
परोसे गए हर पकवान लाजवाब का है।

ये दौर पीने की पानी की भारी कमी का है।
ये लोगो की मानसिकता में आई कमी का है।
भूख से आई बच्चो की आंखो की नमी का है।
गंदगी में प्रसव से मरी जच्चा की गमी का है।

ये दौर .....जो अभी बाकी है

भावार्थ...

Sunday, March 30, 2008

टशन है ये यार का !!!

जश्न है ये प्यार का।
टशन है ये यार का।

सुरूर ओढे चाँद है
खुशी ओढे याद है।
असर है ये बहार का।

जश्न है ये प्यार का।
टशन है ये यार का। -२


चुलबुली सी खुशियाँ।
खुशनुमा सी दुनिया।
जजा है ये इजहार का।

जश्न है ये प्यार का।
टशन है ये यार का। -२


एहसास है साथ में आज।
ख्वाब है हकीकत आज।
मोजज़ा है ये इकरार का।

जश्न है ये प्यार का।
टशन है ये यार का। -२

धुप
में तेरी ही चमक
हवा में तेरी ही महक ।
पयाम है ये निगार का।

जश्न है ये प्यार का।
टशन है ये यार का। -२

भावार्थ
...

आज मैं जब अपने खुदा को ढूढने निकला !!!

आज मैं जब अपने खुदा को ढूढने निकला।
हर मन्दिर मगर शहर का खाली निकला।

फ़िर जब किसी ने कहा मस्जिद जाओ।
वहाँ हर सीढ़ी पे बैठा शख्स हिंदू निकला।

कुछ लोग रास्ते में किसी पथर को घेर बैठे थे।
पूछा किसीसे तो वो उनका मसीहा निकला।

किसी ने उन पहाडो का रास्ता बता दिया मुझे।
लाल चोगे में हर नमाजी मगर बुद्धा निकला।

शाम की नमाज़ पढने को हाथ उठाये ही थे।
नूर खुदा का ख़ुद मेरी रूह से बाहर निकला।

भावार्थ...




Friday, March 28, 2008

रूठ कर यू तो उसने मुझसे।

रूठ कर यू तो उसने मुझसे।
मेरे लिखे ख़त फाड़ दिए सारे।
और हर तोहफा फैक दिया था।


थक कर वफाओ के बोझ से।
मेरे साए का एहसास भी।
उसने जैसे उतार दिया था।

वो माथा, वो कपोल, वो लब।
नहीं बचे मेरा कोई निशाँ बाकी।
जिस्म उसने यू धुल लिया था।

बातें
, सौगातें, वो तनहा राते।

हाथ में हाथ थे , जाँ में जाँ थी।
सारी यादो को उसने भुला दिया था।



फिर भी बच गया था अंश कोई।
शायद मेरा सोचकर आख़िर उसने।
खंजर अपने दिल के पार किया था।



भावार्थ...

Thursday, March 27, 2008

ख्वाबो का उनमान...!!!

खाली नाव जो इस नदी में चली जा रही है।
कौन सी मंजिल को ये युही बढ़ी जा रही है।

इसको
अंदाजा नहीं सर्द हवाओं का शायद।
इसीलिए ये फकीरी का लुफ्त उठा रही है।

नाव तो क्या इंसान तक लील गए है ये भवर।
पर ये बेखौफ सी उधर ही बढ़ती जा रही है।

उचे
साहिल है जो नदी के साथ-साथ चलते हैं।
इनकी हकीकत भी नदी में घुलती जा रही है ।


ये
धीमा बहाव लहरों का मद मस्त लगता है।
आज इसकी सीरत भी कुछ बदलती जा रही है।

ये ख्वाब टुटा और में उठ बैठा हैराँ सा सोचता हूँ।
मेरी ज़िंदगी भी खाली नाव सी बनती जा रही है।

भावार्थ...

मैं अब मोहब्बत करने लगा हूँ...

मैं रेत को मुट्ठी में कस के पकड़ के
आज कल साहिल पे टहलने लगा हूँ...
यूहीं किसी नज्म को गुनगुनाते हुए
दूर तक अंधेरे में चलने लगा हूँ...
लोग आते रहे और जाते रहे
मुझे उनके होने का एहसास भी न हुआ...
किसी अध-पगले की तरह दुपहरी में
मैं आजकल सपने बुनने लगा हूँ...
रात को जाग कर मैं पल में
सो जाना चाहता हूँ माँ की लोरी सुनकर...
अपनी नींद में टूटे उन अधूरे
ख्वाबो को फ़िर से पूरा करने लगा हूँ...
क्या करू न चाह कर भी वही चेहरा
नज़र आता है मुझे हर चहरे में...
किसी अपने ने कहा धीमे से मुझे
कि मैं अब मोहब्बत करने लगा हूँ...

भावार्थ...

में अब मोहब्बत करने लगा हूँ।

मैं रेत को मुट्ठी में कस के पकड़ के साहिल पे टहलने लगा हूँ।
यूहीं किसी नज्म को गुनगुनाते हुए दूर तक अंधेरे में चलने लगा हूँ।

लोग आते रहे और जाते रहे मुझे उनके होने का एहसास भी न हुआ।
किसी अध-पगले की तरह दुपहरी मैं आजकल सपने बुनने लगा हूँ।

रात को जाग कर मैं पल में सो जाना चाहता हूँ माँ की लोरी सुनकर।
अपनी नींद में टूटे उन अधूरे ख्वाबो को फ़िर से पूरा करने लगा हूँ।

क्या करू न चाह कर भी वही चेहरा नज़र आता है मुझे हर चहरे में।
किसी अपने ने कहा धीमे से मुझे कि में अब मोहब्बत करने लगा हूँ।

भावार्थ...

तुझसे मिलने के बाद !!!

यू तो खुशनुमा माहौल है तुझसे मिलने के बाद।
पर ये दिल परेशान है मेरा तुझसे मिलने के बाद।

लहू जम गया था और मैं पसीना पसीना भी हुआ।
अजीब सा वाकया हुआ ये तुझसे मिलने के बाद।

कौन सा जादू है की तू ही तू है हर जर्रे में।
आईने में नहीं अक्स मेरा तुझसे मिलने के बाद।


ये रास्ते जो मेरी मंजिल को जाते थे अब तक ।
सब तेरे घर को मुड गए तुझसे मिलने के बाद।

कोई मजनू बुलाये तो कोई दीवाना पुकारे मुझे।
मैं तो यहाँ बेनाम सा हुआ हूँ तुझसे मिलने के बाद।

में खुदा का बस्शिन्दा हूँ और नमाजी हूँ ईमां से।
पर बुतों को पूजने लगा हूँ में तुझसे मिलने के बाद।

भावार्थ...

में तो ये चेहरा बदलना जानता हूँ !!!

वो कुछ नहीं कहती लब्जो से लेकिन।
में उसकी हर अनकही बात जानता हूँ।

ये तो चर्चे हैं धुएँ की तरह फैले हैं यहाँ ।
कहाँ लगी है आग में ये जानता हूँ।

वो हया से छुपाती है सारे ख्वाब अपने।
में उसके दिल में दबे अरमान जानता हूँ।

वो भुला देगी कहती रही जुदा होने पर।
पर मैं अपने रिश्तो की कशिश जानता हूँ।

कौन सा चेहरा दिखाऊँ तुझको बता ।
में तो ये चेहरा बदलना जानता हूँ।

भावार्थ...

Monday, March 24, 2008

ख्वाजा जी ....जोधा अकबर

ख्वाजा जी, ख्वाजा
ख्वजजीई, ख्वाजा, ख्वाजा जी
या ग़रीब नवाज़
या ग़रीब नवाज़
या ग़रीब नवाज़
या मोईनुद्दीन, या ख्वाजा जी
या ख्वाजा जी
या ख्वाजा जी
(ख्वाजा मेरे ख्वाजा
दिल में समां जा
शाहों का शाह तू
अली का दुलारा) - २
ख्वाजा मेरे ख्वाजा दिल में समां जा
ख्वाजा मेरे ख्वाजा दिल में समां जा
बेक़सो की तकदीर, तुने है सवारी
बेक़सो की तकदीर, तुने है सवारी
ख्वाजा मेरे ख्वाजा
तेरे दरबार में ख्वाजा
दूर तोह है देखा
तेरे दरबार में ख्वाजा
सर झुका ते है औलिया
तू है उनल्वाली ख्वाजा
रुतबा है प्यारा
चाहने से तुझको ख्वाजा जी मुस्तफा को पाया
ख्वाजा मेरे ख्वाजा
दिल में समां जा
शाहों का शाह तू
अली का दुलारा
मेरे पीर का सदका
मेरे पीर का सदका
है मेरे पीर का सदका
तेरा दामन है थमा
खावाजाजी
तली हर बाला हमारी
चाय है खुमार तेरा
जितना भी रश्क करे बेशक
तोह कम है ऐ मेरे ख्वाजा
तेरे कदमो को मेरे रहनुमा नही छोड़ना गवारा
(ख्वाजा मेरे ख्वाजा
दिल में समां जा
शाहों का शाह तू
अली का दुलारा) - २
ख्वाजा मेरे ख्वाजा दिल में समां जा
ख्वाजा मेरे ख्वाजा दिल में समां जा
बेक़सो की तकदीर, तुने है सवारी
बेक़सो की तकदीर, तुने है सवारी
(ख्वाजा मेरे ख्वाजा
दिल में समां जा
शाहों का शाह तू
अली का दुलारा) - २
ख्वाजा जी
ख्वाजा जी
ख्वाजा जी ....

Tuesday, March 18, 2008

खो न जाए बचपन !!!

आज बचपन को न खेलता देख।
मेरा मन सुबह से ख़राब सा है।
मुझे नहीं पता न जाने क्यों।
बचपन से मुझे एक लगाव सा है।

क्यों ये 'पिन्नी' बीनती लड़की।
टाट का बोरा पीठ पे लटकाए है।
कुल आठ साल की ही तो है।
इसके बचपन पे बोझ के साए हैं।

क्यों इसे लोग अट्ठानी कहते हैं।
हाथ में केतली लिए फिरता है।
झूठे चाय के ग्लास धोता हुआ।
ये बचपन क्यों काम में घिरता है।

ये बच्चा क्यों बच्चे को खिलाता है।
झूले में उसका भी झूलने का मन है।
अभी अपना बचपन ही नहीं बीता।
दूसरे बचपन को खिलाता बचपन है।

'मिड-डे' की ख़बर बेचता ये कौन है।
वो उधर से निकला जिधर स्कूल हैं।
वो जरा रुका बच्चो के रिक्से के पास।
ये बचपन बस बेचने में मशगूल है।

कभी खुल कर तो कभी छुप कर।
यह बचपन कहीं कौनो में रोया है।
क्या है खुशी खोने का दर्द,वही जाने।
जिसने ख़ुद कभी बचपन खोया है।

भावार्थ...

आपने बीच मैं ही अपनी कलम बंद कर दी !!!

मेरी तन्हाई जब मेरी साँसों पे छाने लगी।
जिंदगी उन लिखी नज़मो में समाने लगी।
ये न जाने कौन सा वाकया हो रहा था।
अधलिखी नज्म 'बयाज़'* से बाहर आने लगी।

उसने जिस अदब से हया को पहना था।
मेरे होश अपने आप को ढूढने लगे।
उसका दीदार इस कदर छाया मुझ पे।
मेरे ख्याल रूमानियत में डूबने लगे।

उसने "आदाब" जिस अंदाज़ से फ़रमाया।
हर अल्फाज़ " या अल्लाह" पे सिमट गया।
जिस फकीरी के चोगे को मैंने सालों पहना।
वही इस हुस्न-ऐ-बुता पे आज मिट गया।

ये तो कुछ साल पहले की लिखी नज्म थी
उन्दिनो मुझ पे पे इश्क का सुरूर छाया हुआ था।
वो धीरे धीरे मेरे दिमाग से निकली और ।
और उसका असर मेरे दिल पे आया हुआ था।

मैंने पूछा की क्यों वह भी बेवाफ़ निकली।
क्यों मेरी हर तस्वीर-ऐ-इश्क उसने तोडी।
आख़िर तक देखता रहा उसे रास्ते पे बेपलक
पर क्यो उसने अपनी नज़र एकबार न मोडी।

आख़िर उसकी चुप्पी टूटी और बोली आपने।
अधूरी शक्शियत मेरी अल्फजो में बंद कर दी।
हम कैसे मुड़ कर देखते आपको बोलो।
आपने बीच मैं ही अपनी कलम बंद कर दी।


मेरी आदते हादसा बन गई मेरे लिए।
में अपने अंदाज़-ऐ-बया में बह गया।
में पुरी न कर पाया उज़ नज्म को।
और मेरा ये इश्क भी अधूरा रह गया।


भावार्थ...
बयाज़: Diary, हुस्ने-ऐ-बुता: Beauty of Idol

Monday, March 17, 2008

में हूँ या शायद की हूँ ही नहीं !!!

इन बाजारों के समुद्र में।
भीडो के कारवा तैरते हैं।
सड़के भौचक्की सी है।
चौराहे मिलते बिछुडते हैं।

गली गली को ढूढती है।
रास्ते गुमराह हो चुके हैं।
मंजिल बेघर हुई है।
सफर बर्बाद हो चुके है।

हादसे जैसे बेखौफ हुए हैं।
डर को डर नहीं लगता।
तलाश खतम नहीं होती।
रिश्ता रिश्ता नहीं लगता।

कीमत को शर्म आ रही है।
खरीद बेमानी हुई है।
दुकानों पे मेले लगे है।
पर तन्हाई छायी हुई है।

धोखा खून्कार हुआ है।
विश्वास मिट रहा है।
किस्मत का बोलबाला है।
यहाँ प्यार घट रहा है।

सोच सोचने पे मजबूर है।
खयालो का ख्याल नहीं।
सपने सिर्फ़ एक सपना है।
अरमान अब अरमा नहीं।

हकीकत घिनौनी है।
वास्तविकता पे विश्वास कहाँ है।
सच ख़ुद झूट बोलता है।
खुदा को ख़ुद पे विस्वास कहाँ है।

रूह ख़ुद को महूस कर नहीं सकती।
वजूद है भी शायद है ही नहीं।
जिस्म को होश ही कहाँ है अपना।
में हूँ या शायद की हूँ ही नहीं।

भावार्थ...






ऐ काश मैं एक बार चोर बन जाऊं !!!

ऐ काश मैं एक बार चोर बन जाऊं।
तेरे सारे गम फ़िर जिंदगी से चुराऊँ।

दुपट्टे जो बार बार सरक जाता है।
उसको चुराके तेरे काँधे पे बिठाऊँ।

तेरे केशु जो बार बार लहरा जाते हैं।
उनो चुराके वहाँ से कानो पे सजाऊँ।

तेरे माथे पे ये कुछ एक पसीने की बूंदे।
उनको चुराके कहीं हवा में लहरऊँ।

जो सपने तेरे अरमान बन चुके हैं।
उनको चुराके क़दमों में तेरे बिछाऊँ।

तेरे बचपन की ख्वैश चाँद तारों की।
चुरा के उनको तेरे आचल में रख जाऊं।

ऐ काश मैं एक बार चोर बन जाऊं।

भावार्थ ...

Sunday, March 16, 2008

समझ लो इश्क की दस्तक है !!!

पुरी दुनिया एक शख्स में सिमटने लगे।
रास्ते सारे उसकी तरफ़ जब बढ़ने लगे।
चाह के भी नज़र उसको न हटा पाये।

समझ लो इश्क की दस्तक है।

जब बेवकूफियां करने का मन करने लगे।
छोटी छोटी बातों का ख्याल दिल रखने लगे।
उसको हँसाने का हर काम तुम करने लगो।

समझ लो इश्क की दस्तक है।

जब रूठने मनाने के दौर चलने लगे।
बातों में घंटो युही गुज़र जाने लगे।
रहे न अपने आप की फिक्र अगर।

समझ लो इश्क की दस्तक है।

आंखो में नींद मगर सो पाओ नहीं।
भूलना चाहो मगर भूल पाओ नहीं।
रात दिन का असर खत्म होने लगे।

समझ लो इश्क की दस्तक है।

भावार्थ...

Saturday, March 15, 2008

वोही तन्हाई मुझ से कहती है।

वो जब अपनों की भीड़ कहीं गुम थी ।
तुझको ही मैंने फ़िर यहाँ खड़ा पाया था।
जब दर-ब-दर की ठोकरे लगी मुझे तू।
तुने ही तू मेरा आशियाना बसाया था।

मेरे सर को गोद में रख के तुने।
कई बार मेरे बालो को सहलाया है।
थकी जिंदगी की उन गमजीन शामो को।
तुने मुझे गुनगुना के सुलाया है।

मेरी बक बक को तुने घंटो सुना ।
उड़ती रही तू मेरे सपनों की उड़ान में।
मेरी पसंद को तुने अपना बनाया।
रंग भर दिए तुने मेरे हर अरमान में।

वोही ''तन्हाई'' मुझ से कहती है।
उसे छोड़ में हमसफ़र ढूढ़ लूँ ।
उसका वजूद तू सिर्फ़ एहसास है।
किसी इन्सां संग दिल जोड़ लू।

भावार्थ...

Wednesday, March 12, 2008

मेरी गम-ऐ-जिंदगी का आरिज़ा तेरा एहसास है।

मेरी गम-ऐ-जिंदगी का आरिज़ा सिर्फ़ तेरा एहसास है।
मेरी बयाज़-ऐ-हस्ती में एक तेरा बाब ही ख़ास है।

तू राबिता मेरी शक्शियत से रखना मेरे गुमनाम रकीब ।
खलिश ख़ुद-ब-ख़ुद मिट जाती है तू ऐसा एहसास है।

यू तो ख्वाजा के नूर से मुनव्वर है ये हिलाल मगर।
टिमटिमा रही जिससे हर रूह उस जिया की तलाश है।

तन्हाई के पतझड़ ने तो मुझे कब का उखाड फैका था।
जिंदगी को गुमान था उसके गुलज़ार में एक तू पलाश है।

चांदनी रोज मीलो चल के आती है तेरा दीदार करने को।
त-उम्र उससे फासले कम न हुए जो मेरे दिल के पास है।

भावार्थ...

Words: aariza: Compensate, bayaaz-e-hasti: Diary of life, baab-chapter, Raaabita-Contact, Munnavar: Luminous, Hilaal-New Moon, Jiya-Light.

जिंदगी और तकदीर ....त्रिवेणी स्वरूप

तकदीर एक अमीर शख्स है।
और ये जिंदगी एक गरीब बन्दा।

दोनों की राह कभी मिलती है और कभी नहीं !!!

तकदीर को जिंदगी से रूठने का हक है।
जिंदगी तकदीर को इल्जाम कैसे दे।

जिंदगी तो बस तकदीर को बद दुआ देगी !!!

तकदीर उपना रुख जिधर लेती है।
जिंदगी अपना रुख उधर मोड़ लेती है।

आख़िर गरीबी अमीरी की गुलाम ही तो है !!!



जिंदगी आज खुश है की तकदीर मेहर्बा है।
रौशनी चाँद की भी तो उधार की होती है।

उधार की चीज़ें वफ़ा के काबिल नहीं होती !!!

तकदीर जिद्दी है और जिंदगी मजबूर।
अरमान का बस कहाँ चलता है।

वरना कोई सुलेमान से फकीर क्यों बनता !!!



भावार्थ...

कौन जीतेगा पता नहीं मुझे।

कौन जीतेगा पता नहीं मुझे।
इंसान हौसला बुन रहा है।

और खुदा तकदीर कहीं।
कौन पायेगा उस मंजिल को।
इंसान सपने बुन रहा है।
और खुदा राह कहीं।
कौन आएगा जिंदगी में।
इंसान ख्वाब बुन रहा है।
और खुदा हमसफ़र कहीं।
कौन जाने कल क्या होगा।
इंसान जिन्दगी बुन रहा है।

और खुदा ये मौत कहीं।

भावार्थ ...

ये अंजाम भी क्या खूबसूरत है।

यू जुदाई बरसी उस रोज।
की तन्हाई टपकने लगी हर सू।
ख्यालो का कोहरा छाने लगा।
याद ही बस गई तेरी हर सू।

में डरता हूँ डूबने से।
अपनी अदो से कहो छुप जाए।
मेरा कैद में दम घुटता है।
कैशुओ से कह दो की बह जाए।

तू ख़ुद नहीं आती आगोश में।
अपने एहसास को भेज देती है।
तू ख़ुद नहीं कुछ कहती।
इन अल्फजो को बुन देती है।

तेरे अक्स का नशा नहीं उतरता।
मैंने कितने आईने तोड़ देखे।
तू मेरी रूह से जुदा नहीं होती।
कितने खंजर दिल में भौंक देखे।

क्यों तेरे वादे लहू बन के बहते है।
तेरी हर उम्मीद मेरी साँस बन बैठी है।
क्यों तेरा अरमान आखों में तैरता है।
क्यों तेरी मुस्कान मेरी जा बन बैठी है।

तू आज दफ़न होगी।
ये लोग मुझे क्यो कब्रगाह ले आए हैं।
तेरे यहाँ तू कोई नहीं रोता।
क्यों मेरे यहाँ मातम के साए है।

ये अंजाम भी क्या खूबसूरत है।
लोग जिसको इश्क कहते है।
मेरी आँखे यहाँ रोती है और ।
उसकी निगाहों में अश्क बहते है।

भावार्थ...

Tuesday, March 11, 2008

ये जिंदगी मेरी तो खुली किताब सी है।

ये जिंदगी मेरी तो खुली किताब सी है।
कहानी इसमें तेरी हर एक याद सी है।

सब तलक इसकी हर एक बात पढू में ।
लफ्जों से बुनी है एक फरियाद सी है।

बीच में मुड़े मुड़े से ये कुछ एक पन्ने।
जैसे तेरे रूठने की अदा कोई ख़ास सी है।

जिल्द इसकी तेरी दुआओं से बनी है जैसे ।
उसमें लिपटी जिंदगानी मेरी सौगात सी है।

पन्नों की फड-फाड़ाहट जैसे तू आई हो।
खुशबु बह गई जैसे सरे बाज़ार सी है।

ये मोर के पंख जो कहीं दबे हुए से हैं।
तेरे दिए उन तोहफों की कोई याद सी है।

पन्नों पे पीलापन उम्र का पड़ाव हो जैसे।
जैसे ताजगी उनमें नए गुलज़ार सी है।

ये जिंदगी मेरी तो खुली किताब सी है।
कहानी इसमें तेरी हर एक याद सी है।

भावार्थ..

Friday, March 7, 2008

ये बिहारी मजदूर।

ये बिहारी मजदूर।

जो रातों को कतारों में चलते नजर आते है।
जो जीवन भर बस दो जून की रोटी खाते हैं।
जो ख़ुद रहते हैं मिटटी के कच्चे घर में पर।
ये मेट्रो की गगनचुम्बी इमारतें बना जाते है।

उस बिहारी मजदूर के बच्चे ।

इनके बच्चो का बचपन रेत और मिटटी में कटता है।
दूसरे बच्चो को खेलता देख इनका मन भी मचलता है।
तभी माँ इनको एक रोटी के टुकड़े से बहलाती है पर।
अपनी मान से वो जिद्दी पुरी रोटी के लिए विफरताहै।

उस बिहारी मजदूर की बीवी।

सुबह सुबह किकी अधबने प्लोत में जाकर वह नहाती है।
उसकी अस्मिता दिन भर कई दफ्हा आखों से लूटी जाती है।
ढोती पत्थ्रर अपने मर्द के साथ, बच्चे को स्तन-पान कराती है।
नाज़ुक, शोखी, और मदहोशी मजदूरी के पसीने में डूब जाती है।

उस बिहारी मजदूर का जीवन।

मजदूरी उसका शौक नहीं एक जुल्म शरिकी मजबूरी है।
पढ़ न सका वो पर उसके लिए इक अवसर भी तो जरूरी है।
कम कीमत पर करेगा काम विषम समय में जीवन भर।
बिन जलालत के उसकी मौत की कहानी अधूरी है.

इस सब का सबब ...

एक बिहारी सौ बीमारी। दो बिहारी लड़ाई की तयारी।
तीन बिहारी ट्रेन हमारी। पाँच बिहारी, सरकार हमारी।...बाल ठाकरे

कहो कौन से युग में आ पहुची ये इंसानियत की डोरी है।
मर चुका है काम करने वाला अब मरने वाली मजदूरी है।

जिंदगी कितनी बदल गई ।...

हुस्न की दिलकशी जाने लगी है।
प्यार की रवानी जंग खाने लगी है।
अदाओं ने खंजेर लिए हैं उधार।
शोखियाँ कत्ल करके हुई है फरार।
वफ़ा घूमती है दर-दर यहाँ।
नजाकत है गुमराह यहाँ।
आखें साजिश में लगी आज कल।
लब्ज़ झूट बुनने लगे आज कल।

जिंदगी कितनी बदल गई ।...

भावार्थ ....

Wednesday, March 5, 2008

अब मैं भी अपने बारे में यही ख्याल रखता हूँ।

पहले तो मेरे दोस्त कहते थे कि मैं अजीब सा हूँ।
अब मैं भी अपने बारे में यही ख्याल रखता हूँ।

जिन दोस्तो के साथ मैंने बेहिसाब खुशियाँ बाटी है।
उनके दिए उधार का मैं अब ख़ुद हिसाब रखता हूँ।

मेरे अपने न जाने किस बात का बुरा मान जाए।
इसलिए मैं अपनी जुबान पे भी लगाम रखता हूँ।

नाम किसी का दूसरो में जेहर भर देता है सुना है ।
इसलिए मैं कहीं अपने नाम को गुमनाम रखता हूँ।

कोई भी लूट सकता है तुम्हारी खुशियों को यहाँ।
तभी अपनी खुशियों को मैं दिलमें छुपा के रखता हूँ।

सुना है लोग बीमार लोगो से कुछ दूर ही रहते हैं।
इसलिए मैं अपनी तबियत कुछ नासाज़ रखता हूँ।
भावार्थ...

Monday, March 3, 2008

मेरे अरमान खुल के जीने को जिद करते थे तो !!!

मेरे अरमान खुल के जीने को जिद करते थे तो।
में हर बार उनको सपने दिखा कर सुला देता था।

पर वह उनका बचपन था, उनमें नादानी थी।
पर अब वो जवा हैं, आसनी से नहीं बहलते।

मुझको आगाह करते हैं ,की में किस राह जा रहा हूँ।
क्यों उनको दबा दूसरो की उमीदों को जिए जा रहा हूँ।

मुझ पे जवाब नहीं बनता तो में झल्ला जाता हूँ।
उनको समझा नहीं पाता तो में सहम जाता हूँ।

कैसे बताऊं की उनको जीने का हक बाद में है।
जिम्मेदारिओं का मुझ पर कर्ज है।
मुझको उनके लिए जीना है जो मेरे लिए जिए है।
उनको हो सकता है अनाथ बनना पड़े।

वो अपनी धौंस दिख कर मुझे डराते हैं।
कहते है की उनकी मेरे दिमाग से पैठ है।
अगर में नहीं मानूँगा तो मुझे सतायेंगे।
मेरी जिम्मेदारी निभाते वक्त मुझको रुलायेंगे।

इसलिए हमेशा हम जैसे लोग
यहां फ़ुट फ़ुट कर रोते हैं।
उमीदो को जीने की खातिर
अपने अरमानों को खोते हैं।।


भावार्थ ...

ये रात और ये तन्हाई !!!

कल जब दुपहर की शाम हुई तो मैं।
उसके साथ टहलने निकल लिया।
जैसे जैसे बयार बहने लगी।
शाम ने फिजा में अँधेरा भर दिया।

सूरज आखरी बार दमका।
और दबे पाऊँ कुछ तारे बाहर खेलने आ गए।
चाँद थोडी देर में चमका।
पर बादल बार बार उसको छुपाने आ गए।

सन्नाटा जैसे शोर को लील गया था और
उसका गुस्सा कोहरा बनके छा गया था।
जीवन जैसे मर गया था, जुगनुओं के सिवा
गाँव जैसे उजड़ गया था, अंधेरे के सिवा।

चांदनी घुलने को बेताब थी।
उसको कफ़न का रंग बेहद पसंद है।
लोरियां नादान व्यस्त थी ।
रात को सोता हुआ इंसान पसंद है।

रात को भीड़ का अजीब सा खौफ है।

तभी भीड़ को अंधेरे से डराती है।
लोग उसको उजाले से बेअसर करते हैं।
वह इसलिए तनहा जिए जाती है।

रात की तन्हाई से दोस्ती अटूट है।
दोनों का मिजाज़ एक जैसा है।
दोनों मैं गले तक भरा गम है।
उनका रूमानी सुरूर भी नम है

लेकिन मेरी तासीर भी इनसे मिलती है।
मेरी हर नज्म इनके सबब से सिलती है।
मेरे हर जर्रे में है उस बेवफा की परछाई।
रात जैसा गम और एक नम सी तन्हाई।

भावार्थ...

असली तोहफा तो नाराजगी रही !!!

अपनी अर्धांगिनी को उदास देख।
उसकी नाराजगी को टटोला।
उसकी उनकाही बातों ने आज।
न खुलने वाला राज खोला।

वो उदास है मेरे इकरार से।
मेरे इस झूठे प्यार से।
मेरे भीतर के इंसान से।
और इस अंदाजे इजहार से।

सालो उसने मुझे जानने में बिताये।
गलतियों पे शौल लपेटी।
मेरे बाहरी एहसास में फ़िर।
उसने कहीं खुशियाँ सिमेटी ।

मेरे शौको में उसका दम घुटता है।
मेरे नज़रिओं में धुंध है।
मुझे सलीको से बैर है।
मेरी सोच भी जैसे बंद है।

दर्द का एहसास मुझे नहीं होता।
मेरा प्यार हवस का रूप है।
में जैसे किसी नौटंकी का भांड हूँ ।
मुस्कान के पीछे मेरा कुरूप है।

कब तक आख़िर वो खेल खेले।
बिस्तर के लिए तू कोई शादी नहीं करता।
जब वजूद ही अपना अस्तित्व खो रहा हो।
तो उस दीमक को कोई नहीं सहता।

वो ये उफान उडेल कर मुड़ गई।
मेरे सामने नहीं कोई सूरत रही।
में उसके लिए तोहफा लाया था पर।
असली तोहफा तो नाराजगी रही।

भावार्थ ...

Sunday, March 2, 2008

परछाई की शख्सियत क्या है।

परछाई की शख्सियत क्या है।

साया जो आकार बदलता रहता है।
उस दूर चमकते तारे के साथ।
अपनी जगह बदलता रहता है।

परछाई की शख्सियत क्या है।

एक काला शख्स।
जिसका चेहरा नहीं है।
जो चलता भी है लेकिन।
फ़िर भी जिंदा नही है।

परछाई की शख्सियत क्या है।

एक दोस्त है जो हमेशा।
वजूद के साथ रहता है।
जमीन पे पड़ा हुआ है।
पर पैरो को छूता सा है।

परछाई की शख्सियत क्या है।

कविताओं में इसको हमेशा.
सबसे करीबी का दर्जा है.
साँस यह नहीं लेती लेकीन।
इसको जीने का दर्जा है।


परछाई की शख्सियत क्या है।

ये हिज्र कुछ तो मुख्तसर कर दे !!!

खुदा फ़िर वोही हवादिस कर दे।
उससे मिलना मुनासिब कर दे।

शब-ऐ-गम अब सहा नहीं जाता।
ये हिज्र कुछ तो मुख्तसर कर दे।

उसकी बेरुखी अजाब-ऐ-हयात है।
ये इन्तिशार अब तो ख़तम कर दे।

साल लील गए जिस रूमानियत को।
वो वल-वाला-ऐ-इश्क फ़िर भर दे।

वो बेवफा बन जाए तो बेहतर है।
पर इस जुमूद को यू बेअसर कर दे।

भावार्थ...

Saturday, March 1, 2008

मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की !!!

हर पड़ोसी के दर्द में शरीक हुआ हूँ में ।
हर खुशी को अपनी समझ जिया हूँ मैं ।

क्यों अर्थी को कन्धा लगाने न आया कोई।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।

तोहफे हर मौके पे मैंने कर्ज ले कर दिए।
हस के मिला उन्स्से, गम उनके सारे लिए।

क्यों फ़िर मेरे आस्तां पे दिया जला नहीं कोई।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।

खुशी के दीप मैंने जिनके घरो में जलाए।
सब हवन भी किए, कोई बुरा साया न आए।

क्यों आग लगाने मुझे इस रोज न आया कोई।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।

सारे रिस्थ्ते धर्म मान कर निभाए मैंने।
दुःख न पहुंचे ऐसे गीत ने गुन्ग्नाये मैंने।

मुझे भी दगा दे गई ये सौतेली दुनिया जबकि।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।

भावार्थ...

कलियुग आ गया लगता है !!!

कलियुग आ गया लगाता है।

हया
बेपर्दा हुई है बाज़ार में।
रिश्ते तुल रहे है यहाँ पैसो में।
कल्पना मशगूल है चोरी में।

कलियुग आ गया लगता है।

तन्हाई बिखरी है मयखाने में।
मेहनत बंद हुई कारखानों में।
लक्ष्मी बंद खरीदे मकानों में।

कलियुग आ गया लगता है।

रात दिन का काम भी करती है।
सड़क अंजाम का काम भी करती है।
समय का जैसे अकाल आ गया है।

कलियुग आ गया लगता है।

पागल सा लगता हर आदमी है।
जानवर सा लगता हर आदमी है।
जवानी में बूढा लगताहर आदमी है।

कलियुग आ गया लगता है।

क्या पाना है उसको पता नहीं।
क्या शान है उसको पता नहीं।
मकसद जीने का उसको पता नहीं।

कलियुग आ गया लगता है।

बैचैनी बसती है साँसे की जगह।
बेईमानी बसती है खून की जगह।
बेशर्मी बसती है मांस की जगह।

कलियुग आ गया लगता है।

भावार्थ