Sunday, February 24, 2008

मैं अदना सा क्या ख़ाक पाऊँगा अपनी मंजिल को !!!

मेरी ये महबूब-ऐ- मंजिल फ़िर आज मुझसे रूठी है।
उम्मीदे-खुशी भी आज फ़िर छलक कर कहीं छूटी है।

कब तक कोंसू हाथो की इन ठेडी लकीरों को बता ।
जब मुझे पता है कि मेरी ये किस्मत ही फूटी है।

प्यार की खातिर उसके वादों को वफ़ा समझा मैंने।
जबकि पता था मुझे कि उसकी हर एक बात झूटी है।

कैसे पाऊँगा उस ख्वाबों के फलक को बता खुदा।
जब मेरे होसलों की दोस्ती ही मेरे अरमानों से टूटी है।

मैं अदना सा क्या ख़ाक पाऊँगा अपनी मंजिल को।
जब मेरी राह-ऐ-मंजिल ही ख़ुद खुदा ने यहाँ लूटी है।

भावार्थ ...

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