Thursday, February 7, 2008

कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।
खाकी वर्दी पहन डाकिया ख़ुशी बाँट के जाता था।

पीला सा पोस्ट कार्ड या नीला अंतर देशी जब आये।
सफ़ेद लिफाफा, गोंद से चुपका प्यार उडेल के जाये ।

मामा का है ख़त सुनकर मेरी माँ का दिल भर आता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

आएगी दीदी सावन में सुनकर, माँ झूले को कस देती।
ठीक है भाई बॉर्डर पे, खबर ख़ुशी के आंसू भर देती।

मीलों दूर लिखे अल्फाजों का असर यहाँ दिख जाता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

ना आयीं दीदी कभी तो, लिफाफा राखी ले कर आता था।
उसपे से गांधी जी की स्टाम्प में झट करके छुटता था।

पहन राखी रखाबंधन को मैं फिर शौक से इठलाता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

ख़त ने हँसाया खुलकर तो ख़त ने रुलाया भी है जी भर के।
ख़त ने जताया खुलकर तो ख़त ने छुपाया भी है जी भर के।

दूर कहीं से ये कागज़ अपनों की खुशबु लाता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

1 comment:

peerless_thinker said...

Sometimes i really feel like never visiting this blog back, almost every poem here makes my eyes wet..n leaves me low for some time..but there is some wound deep in my heart, i want to scratch it and feel dat sweet pain, so i keep visiting again n again...very touching and very emotional..it signifies the emotional giant sitting inside you.