Friday, February 29, 2008

कुछ ख़ास बनने की चाहत थी बस आम बन गया हूँ !!!

कुछ ख़ास बनने की चाहत थी बस आम बन गया हूँ।
आब-ओ-ताब की चाहत में एक घुबार सा बन गया हूँ।

ये ख्वाइश तो दिल-ऐ-नादा की बस एक जिद सी है।
आसमा के अरमान में उमीदों का कफस बन गया हूँ।

न जाने कैसे याद रखेगी दुनिया मुझे इंतकाल के बाद।
कहानी की चाहत थी एक मुख्तसर मिसरा बन गया हूँ।

बुलंदी की खलिश के जला गई मुझे मेरी रूह तक मौला।
बा-कमाल बनने की चाहत थी एक बे-चेहरा बन गया हूँ।

मेरे उसूल थे जो मेरे वजूद की मशाल बन के जिए।
इंक़लाब की चाहत थी मुझे बस एक मजार बन गया हूँ।

भावार्थ ...

URDU-HINDI

आब-ओ-ताब: शान शौकत , घुबार: धूल, कफस : कैद, मुख्तसर: छोटा सा, मिसरा: वाक्य, खलिश: जलन, बा-कमाल: महान, बे-चेहरा: अनजान, इंकलाब: क्रांति, मजार: कब्र

Wednesday, February 27, 2008

मौला मुझको बख्श इस मोहब्बत-ऐ-हयात के तोहफे से !!!

में थमा थमा हूँ उन रहो पे जिनपर में चल रहा हूँ।
बुझा रहा हूँ जिस आग को उसीमें ख़ुद जल रहा हूँ।

ये हो न हो तेरे प्यार का ही मिला कोई अजाब शाकी ।
तू बिछुड़ रही है मुझसे और में तुझसे मिल रहा हूँ ।

तेरा
ये दर्दे-हिज्र रात भर रुलाता है मुझे खून के आँसू ।
वोही घाव फ़ुट पड़ते हैं मेरे जिनको मैं रोज सिल रहा हूँ।

यही सिला मिलता है एकतरफा मोहब्बत अमीरों से करने का।
जिया उसी लौ से उनकी जिसमें में मोम सा पिघल रहा हूँ।

मौला मुझको बख्श इस मोहब्बत-ऐ-हयात के तोहफे से।
जो तार-ऐ-नफस हैं मेरा में उसी की सासों में घुल रहा हूँ।

भावार्थ ...

Tuesday, February 26, 2008

मेरा अस्तित्व जीतने चला है आसमा नए !!!

उम्मीद की भोर ने आखें खोली है।

दुआओं की आरती के दिए जल गए।


शगुन के नारियल ने आशीर्वाद दिया।

विजय तिलक ललाट पे गढ़ गए।


जनेऊ के ओज ने शुद्धि की रस्म की।

पुरुषार्थ कलावे की शक्ति से बाँध गए।


गंगाजल महल में घुल गया बह कर।

धुप बत्ती के धुएँ से बुरे अरमान जल गए।


खड़ा हूँ शक्ति का आधार लिए में यहाँ।

मेरा अस्तित्व जीतने चला है आसमा नए।


भावार्थ...

Monday, February 25, 2008

मेरा बचपन...त्रिवेणी-५

कोई छोटू कहता है, कोई अठन्नी मुझे।
क्यों मेरा बचपन नाम नहीं रखता।

चाय की केतली ही मेरा खिलौना है शायद!!!

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आठ साल की केतकी की कमर पे दो तीन साल के भाई।
पासम पास का खेल में मशगूल है वो पगली लेकिन।




लड़की होने का एहसास उसकेलिए बचपन का सबक है !!!
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कभी गोले में से निकलती है, कभी मोड़ लेती है ख़ुद को।
चौराहे पे वो 'रेड लाइट' पे आपका शीशा भी चमकाती है।

बचपन
की भूख कितने हुनर सिखा जाती है !!!
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भावार्थ....

जाने किसकी नज़र लगी !!!

मेरे ख्वाबों में एक दरार पड़ गई, किसकी नज़र लगी।
प्यार में न वफ़ा पनप सकी मेरे , ये किसकी नज़र लगी।

पपीहा सावन के आस्तां से आज फ़िर प्यासा लौटेगा ।
एक बूँद पानी की नसीब नहीं हुई, ये किसकी नज़र लगी।

वो हुदूद के उस ओर खड़ी थी पर दीदार नहीं हो पाया।
ठंड में शाम तक ये धुंध नहीं छटी,ये किसकी नज़र लगी।

मेरे अश्कों की नमी रिश्तों में सीलन भर गई फिर से।
भरी गर्मी में भी धुप नहीं निकली,ये किसकी नज़र लगी।

कुछ में चलूँ कुछ वो चलेगी, उसने वादा लिया था मुझसे।
मिलकर भी वो मेरी ओर नहीं मुडी ,ये किसकी नज़र लगी।

में तू रो-रो कर उस खुदा से फरियाद करने को बैठा था।
फालिश मार गई उठने वालो हाथो में,ये किसकी नज़र लगी।

में खुश था की मेरी बद-दुआओं से उसको मौत आएगी।
लेकिन जहर उसपे कर गया असर,ये किसकी नज़र लगी।

भावार्थ...

ढलते दिन की खुशी मना रहे सारे !!!

आज ढलते दिन की खुशी मना रहे सारे।
ये शाम का मंजर और रात के सब नजारे।

लू का गुस्सा भी कम सा हुआ है आख़िर ।
ठंडी बयार में जैसे कहीं उड़ गए हो सारे।

थका हुआ दिन सो गया सांझ के आगोश में।
गम की खलिश को जैसे भूल गए हो सारे।

शाम का बुढापा भी आ ही गया आख़िर ।
दिन की जवानी के जैसे रंग ढल गए सारे।

रात हुई और रंगीन ख्वाब जाग गए नींद से।
चांदनी घुली और कहीं से तारे उग गए सारे।

आज ढलते दिन की खुशी मना रहे सारे।
ये शाम का मंजर और रात के सब नजारे।
भावार्थ ...

Sunday, February 24, 2008

मैं अदना सा क्या ख़ाक पाऊँगा अपनी मंजिल को !!!

मेरी ये महबूब-ऐ- मंजिल फ़िर आज मुझसे रूठी है।
उम्मीदे-खुशी भी आज फ़िर छलक कर कहीं छूटी है।

कब तक कोंसू हाथो की इन ठेडी लकीरों को बता ।
जब मुझे पता है कि मेरी ये किस्मत ही फूटी है।

प्यार की खातिर उसके वादों को वफ़ा समझा मैंने।
जबकि पता था मुझे कि उसकी हर एक बात झूटी है।

कैसे पाऊँगा उस ख्वाबों के फलक को बता खुदा।
जब मेरे होसलों की दोस्ती ही मेरे अरमानों से टूटी है।

मैं अदना सा क्या ख़ाक पाऊँगा अपनी मंजिल को।
जब मेरी राह-ऐ-मंजिल ही ख़ुद खुदा ने यहाँ लूटी है।

भावार्थ ...

Friday, February 22, 2008

उनको तो बस माँ की आज़ादी का जोश था !!!

उस रोज आसमान का रंग तिरंगे सा था।
शहजादे देर से उठे, नशे का सुर्रोर बाकी था।
खोल के बाहें उसने भरपूर अंगडाई ली।
धुप की किरने उसने हाथो से छुपा ली।
चाय का प्याला उबासी से पहले लिया।
लव यू मोम का कोम्प्लिमेंट उसने माँ को दिया।

उस तरफ़ बस्ती में अजीब सा शोर था।
आधी नींद में जागे बच्चो का जोर था।
सब मिलकर वंदे मातरम गाने लगे थे।
आज़ादी का जश्न युही मनाने लगे थे।
नंगे पाँव, फटी शर्ट का नहीं उनको होश था।
उनको तो बस माँ की आज़ादी का जोश था।

भावार्थ ...

उस उफक के उस पार दूर कहीं मेरी वो मंजिल है !!!

उस उफक के उस पार दूर कहीं मेरी वो मंजिल है।
बादल छुए भी नहीं अभी और ये हौंसले बोझिल है।

में
चलता हूँ रोज थक जाने के लिए उसी सागर में।
आज फिर वही मझधार और नहीं कोई साहिल है।

जीता
हूँ लाश बनके, रोज भीड़ मेरा इंतकाल करती है।
फिर भी जीने की उमीदों से भरा ये मुस्तकिल है।

खुदा जाने क्या उसकी मर्जी है ,जो छुपा रखी है।
में परेशान हूँ उसकेलिए जो नहीं मुझको हासिल है।

भावार्थ...

जीवन है चलता रहता है !!!

जब जिंदगी मेरी तरह नहीं चलती।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।

जब तकदीर अपना सा रुख लेती है।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।

जब मेरी उम्मीद कहीं छुप के रोती है।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।

जब अरमानों का दम कहीं घुटा है।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।

जब कोई मुड़कर भी नहीं देखता अपनों में।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।

जब भी भीड़ में तन्हाई खाने लगती है।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।
हाले दिल अब ऐसा हो गया है की जब मन करता है।

में कहता हूँ, जीवन है चलता रहता है।

मौज लो और रोज लो !!!

मौज लो और रोज लो।
ना मिले तो खोज लो।

छोड़ो फिक्र के धुएँ ।
छोड़ो सारे गम मुये।
हुस्न की बरसात में।
रह न जाओ उनछुये।

मौज लो और रोज लो।
ना मिले तो खोज लो।

शराब का जाम हो।
शबाब बेपनाह हो।
मस्तियां ही मस्तिया।
सुबह हो और शाम हो।

मौज लो और रोज लो।
ना मिले तो खोज लो।

धिन तिनक धिन गाना है।
हर एक का बैंड बजाना है।
मौजो को बस चीर लो।
ये जवानी एक खजाना है।

मौज लो और रोज लो।
ना मिले तो खोज लो।

बस एक जिंदगानी है।
एक चोटी सी कहानी है।
जब जीना ही है चार दिन।
जाने कब मौत आनी है।

कहता हूँ तभी तो में .....

मौज लो और रोज लो।
नहीं मिले तो खोज लो।

भावार्थ...

Thursday, February 21, 2008

मेरी उसकी तकरार ....

मुझ आवारा-ऐ-मंजिल को भुला दो !!!!

में कमाने का हुनर नही जानता।
में रिश्ते निभाना भी नहीं जानता।
में नहीं जनता प्यार जाताना।
में सपने सजाना भी नहीं जानता।

में ख्याल रखना भी नहीं जानता।
में पलके भिगोना भी नहीं जानता।
नहीं जानता में रूठे को मानना।
में इतजार करना भी नहीं जानता।

कैसे चाहोगी इस फकीर को ....

गहने नए में तुझे दे नहीं सकता ।
महलो में तुझे में रख नहीं सकता
ये धूल जामे पन्ने पड़े है सिरहाने।
इनके सिवा में कुछ पढ़ नहीं सकता ।

मुझे लोग नाकाम बुलाते हैं, सह पाओगी।
में बिखरा हूँ इसी जिस्म में, सह पाओगी।
मेरा मन मेरे काबू में नहीं रहता।
आक्रोश बरसा जो कभी यू ही, सह पाओगी।

वो बोली की मुझसे से ही प्यार करेगी...क्यों की

मेरा प्यार कोई दिखावा नहीं रखता।
मेरा साथ कोई गिले सिकवे नहीं रखता।
नही रखता में शक का शौक।
में किसी गैर का ख्याल नहीं रखता।

में उसके अस्तित्व को मान देता हूँ।
उसके नाम को एक पहचान देता हूँ।
क्या हुआ हाले फकीर है जो मेरा।
उसे में एक परी सा एहसास देता हूँ।

और फिर एक जीवन मिला है...

क्यों बिस्टर का खिलौना बन के जियूं।
क्यों रिश्तो के पाटो में पिस के जियूं।
महलों की गुडिया बनने से बेहतर है।
तुझ कवि की कविता बन के जियूं।

भावार्थ ...

हार !!!

ये खामोश सी हार दिलकश बड़ी है।
बिल्कुल मेरे महबूब की तरह।
बेकरार भी है न जाने क्यों ये ।
बिल्कुल मेरे महबूब की तरह।
तोड़ देती है मेरा दिल यह हर रोज ।
बिल्कुल मेरे महबूब की तरह।
छोड़ देती है मुझे मझधार में ये।
बिल्कुल मेरे महबूब की तरह।
में इसको चाह कर भी नहीं छोड़ सकता।
बिल्कुल मेरे महबूब की तरह।
ये तो अब बन चुकी मेरी तकदीर है।
बिल्कुल मेरे महबूब की तरह।

भावार्थ ...

इन नज़मो को किसी को मैं सुनाना नहीं चाहता !!!

इन नज़मो को किसी को मैं सुनाना नहीं चाहता।
इन लिखे अल्फजों को यू गुनगुनाना नहीं चाहता।

जहाँ छुपा के रखे हैं मैंने तेरी यादों के फूल सारे।
उस गुलज़ार से मैं कोई फूल चुनना नहीं चाहता।

यह नज़मे मेरे आँसू की तरह निकली हैं दिल से ।
कोई देख न ले इन्हे इसलिए में रोना नहीं चाहता।

चलता रहता हूँ तो नज्में थमी रहती है सोच में कहीं।
बह ना जाएं ये कहीं, इसलिए में रुकना नहीं चाहता।

तेरा प्यार में लिखी नज्मों की बोली तो लग रही है पर।
बेजान भूख की खातिर में इनको बेचना नहीं चाहता।

भावार्थ...

आज अपने अरमानों को भी जी कर तो देखो !!!

अपनी शर्तो पे तुम जिंदगी जी कर तो देखो।
तौड़ कर सारी उमीदें यहाँ जी कर तो देखो।

न करो ख़ुद से वादा न ही दूसरो से कभी, ।
वादा न हो कोई , ऐसे कभी जी कर तो देखो।

वो करो जिसमें तुम ख़ुद को ही भूल जाओ।
दुनिया की परवाह छोड़ यहाँ जी कर तो देखो।

चाहो उसे जिसके लिए तुम उसकी दुनिया हो।
बिखेर के सारी खुशिया उसपे जी कर तो देखो।

उमीदों को तो जिया है तुमने अभी तक 'अजय'
आज अपने अरमानों को भी जी कर तो देखो।

अपनी शर्तो पे तुम जिंदगी जी कर तो देखो।
तौड़ कर सारी उमीदें यहाँ जी कर तो देखो।


भावार्थ ...

ये जो चार दिन की कहानी है।

ये जो चार दिन की कहानी है।
मुझे तो बस ये गुन्गुनानी है।
छलकेंगे नहीं अब मेरे आँसू।
खुशी से भरी मेरी जिंदगानी है।

ये जो चार दिन की कहानी ....
आएगा जो गम का झोंका अगर।
चू भी नहीं पायेगा मुझको मगर।
मेरी सासों में छुपी हसी की फुहार।
नहीं आयेगो कोई रोती सूरत नज़र।

ये जो चार दिन की कहानी ....
न होगा कोई मेरा साथी जो अगर।
जी लूंगा सुहाना सा ये तनहा सफर।
खुशी मेरे भीटर छुपी है यहीं
क्यों जाके ढूद्हू इसको में अब बाहर।

ये जो चार दिन की कहानी ....
कुछ भी नहीं मेरा, यही तो खुशी है।
जो नहीं मेरा वो गया , यही तो खुशी है।
किसको पाऊँ तू मिले खुशी की मंजिल।
वही तो मिल गया, उसी की खुशी है।

ये जो चार दिन की कहानी है।
मुझे तो बस ये गुन्गुनानी है।
भावार्थ...

Wednesday, February 20, 2008

लहरों की खातिर आज साहिल डूब जायेगा।

लहरों की खातिर आज साहिल डूब जायेगा।
इस जिस्म को ख़ुद खुदा उसकी रूह से मिलाएगा।

में तो इसिलए चौराहे पे खड़ा हूँ आकर।
पता नहीं वो लौटकर किस रास्ते से आएगा।

सदियों का गम मैंने सीने में समेट के रखा है।
उम्मीद है कि वो एक बार तो मुसकराएगा।

अब तो उम्मीद सिर्फ़ उस कफ़न की बची है।
सुना है वो यहाँ सफ़ेद चादर उढाके जायेगा।


ऐ दोस्त इस मौत की दावा ला के दे दे मुझे।
वरना उससे मिलने का वादा टूट जाएगा।


भावार्थ...

भावार्थ की त्रिवेणी...४

मुझे जाने क्यों मार रहे थे लोग वहाँ।
बता ? बता ? ही सुनाई दे रहा था।

बीच बीच में "कौम" भी किसी ने बोला था शायद !!!
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६ साल का सलीम, कुछ शिवजी के भक्तो से डर के भाग रहा था।
एक घर के सामने जाकर वो खुल जा सिम सिम-२ कहने लगा।

बच्चे कहानियो को कितने ध्यान से सुनते हैं !!!
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वो जो अल्लाह-हो-अकबर कह कर तलवार चलाते हैं।
या जो भगवा रंग पहन सीने पे त्रिशूल बरसाते हैं।

"मौत" भी एक धर्म बन गई है कलियुग में।
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Tuesday, February 19, 2008

मेरे सपने हैं, जो न जाने कहाँ से तुझे ढूढ़ लाते हैं।

जब भी तेरी बात चलती है लफ्ज़ सुख जाते हैं।
बातें जाया लगती हैं, किस्से हम भूल जाते हैं।

न जाने क्या होगा सबब मेरी मोहब्बत का मेरे खुदा।
चाहत उठती तो है, पेर ये अरमा तभी छूट जाते हैं।

मेरे जिस्म की क्या थी बिसात तुझसे इश्क करने की।
मेरे सपने हैं, जो न जाने कहाँ से तुझे ढूढ़ लाते हैं।

आना तभी मेरे आगोश में जब तुम चाहो मुझे मेरी हद तक।
वरना सिर्फ़ चाहने वालों के दिल यहाँ टूट जाते हैं।

भावार्थ ...

नासमझ फ़िर वो मेरा एहसास ढूद्ता है !!!

आजकल वो ख़ुद में है जुदा जुदा सा इसकदर।
कि वो ख़ुद में अपना आज वजूद ढूढ़ता है।

बलिस्तों से नापी हैं उसने दिलो की दूरियां।
वो
रोता है तो आज आखों में आँसू ढूढ़ता है।

जो कह नहीं पाया अल्फाज़ मुझसे चाह कर भी।
हेर पल चुभने वाली वो कहीं आह ढूढ़ता है।

आज जब डूबने लगी है उसकी रूह गम में।
वो आज फ़िर वो यादों के तिनके ढूढ़ता है।


में उसमें हूँ, उसे पता भी नहीं है आजतक।
नासमझ फ़िर वो मेरा एहसास ढूढ़ता है।

भावार्थ...

Thursday, February 14, 2008

भावार्थ की त्रिवेणी...पार्ट-४

कोई भूखा है दूर से ही पहचानना आसान नहीं है शायद। ।
गरीबी भी पसीने में चिपक के चलती सी है लेकिन ।


यह मोहल्ले के कुत्ते हमेशा कूडा उठाने वाले पर ही क्यों भौकते हैं
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बहुत दूर से आए हैं लोग यहाँ उस मरहूम कवि को सुनने।

भीड़ के भीड़ चली आ रही है, शामियाने की तरफ़

अकेलेपन में लिखी नज्में आज भीड़ से रूबरू होंगी !!!
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शायद सारे फूल भी यहाँ खिलते होंगे रोज लेकिन।

पोरबंदर में घुसते ही मुझे मरी मछली की बदबू ही आई।

मौत का साँसों से रिश्ता काफ़ी पुराना सा लगता है।!!!
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भावार्थ...

मछली की लोरी...!!!

एक मछली बोली प्यारी सी।
माँ मुझे सुनाओ तुम कहानी सी।

उसकी माँ बोली। बड़े दिनों की बात है।


कुछ साल गये जब इन्साँ पानी में रहता था।
बिल्कुल हमारी तरह ही वो तैरता रहता था।

एक रोज कहीं से कहीं से बड़ी सी प्यासी मछली आई।
इंसा का सारा पानी पीकर उसने अपनी प्यास मिटाई।

तरसा सा इन्साँ बेचारा हमारे पास पधारा ।
हमने झट से उसको सागर का दिया सहारा।

रह जाए यह जीवित, हम अपना संसार ले आए यहीं।
वरना हमारा था संसार जुदा, इन इंसानों से दूर कहीं।

मछली बोली, फ़िर मम्मी क्यों यह सब हमको खाते हैं।
माँ बोली इनकी फितरत तो ख़ुद खुदा समझ न पाते हैं।


डर करके प्यारी मछली तो सो गई माँ की गोद में।

न जाने यह हिंसक इन्सान आएगा कब होश में।



भावार्थ ...

मौत तू ही सही !!!

जानेऔर अनजाने का भेद मिटा जाता है।

अपने और पराये का भेद मिट जाता है।

हिंदू और मुसमान का भेद मिट जाता है।

अमीर और गरीब का भेद मिट जाता है।

मर्द और औरत का भेद मिट जाता है।

मौत तू ही सही !!! शुक्र है चलो !!!

कुछ तो है जो सबको मिलता है।

एक मुलाकात !!

रात ठंडी थी और में अजनबी था उसके लिये।
वो ठिठुरती रही, और सोचती रही कि।

मेरे आगोश में आने के लिये उसको बेहया बनना होगा !!!
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मैंने उसको देखा भी नहीं ठीक से, अँधेरा था।
उसने भी सूरत छुपानी चाही झिझक कर।

पर बिजली की कड़क उसकी एक झलक दिखला ही गई !!!
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साँस रुक सी गई पल भर के लिये।
सिरहन दौड़ गई भीतर नसों में उसकी खुशबू से।

कभी सोचा भी नहीं था, की उस बेवफा से ऐसे मिलाएगा खुदा !!!
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भावार्थ ...

Wednesday, February 13, 2008

भावार्थ की त्रिवेणी पार्ट-३ ...

हेल्प !! हेल्प !! हेल्प !! हेल्प हेल्प !!

में चिल्लाता रहा उस रोज सुबह ।

पर वो अनपढ़ मुझे(पेड़) कुल्हाडी से काटता ही रहा !!!

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ज़माने ने तुझे मुझसे न कभी मिलने दिया।

लोग ही लोग हैं, उनकी झिझक थी तुमको।

आ जाओ अब मेरी कब्र किसी वीराने में बनी है !!!

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महंगे तोहफे, हीरे के हार ही मांगती है मुझसे वो।

उसे मालूम है में बस एक चीज़ दे सकता हूँ।

पर उसको दीवानापन, पागलपन पसंद नहीं !!!

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भावार्थ...

भावार्थ त्रिवेणी पार्ट-२

एक मासूम गुडिया, एक दिलकश मसूका
एक दुलारी माँ, एक प्यारी दादी खो दी हमने।

एक और भ्रूण हत्या की रपट आज किसी ने थाने में दर्ज कर दी !!!
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मारो इसको, कपड़े फाड़ दो इस साले के।
गालियाँ खाता रहा, लातें पड़ती रही usko ।

वो भूखा उस चुराई हुई डबल रोटी को बस खाता रहा।
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बेच भी दोगे "रुखसाना" को अगर सरे बाज़ार में।
उन लाखों खरीदने वालो की महफ़िल में।

कुछ लीटर खून, और कुछ एक किलो गोस्त के अलावा क्या मिलेगा।
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भावार्थ की त्रिवेणी... पार्ट-१

मुझे शुरुआत में ही मिटा दो डॉक्टर अंकल।
कैंची ही उठा लो, बस कुछ पल ही लंगेगे।

मिटटी के तेल की जलन मुझसे सही नहीं जायेगी
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उस कवि को तो मार दिया, उन गुंडों ने सरे आम सड़क पे।
उसके सारे पन्ने भी जला दिए, घेर में ताला तोड़ कर घुस के।

बेवकूफ उनको कहाँ ढूँढेंगे जो उन पन्नों को पढ़ बैठे हैं !!!
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यह ऊँची ऊँची मंजिल बनने वाले, ज़मीन गहरी खोदते हैं।
वो जाने क्यों बार बार आ जाते हैं, नींव खोदने के लिए।

गहरी नींद में सोया मेरा महरूम दोस्त जाग जाता है!!!
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भावार्थ ...

प्यार ही प्यार फिजा में है आज इसकदर !!!

प्यार ही प्यार फिजा में है आज इसकदर।
हर एक जर्रे में आ रहा है प्यार ही मुझे नज़र।

सुर्खलाल हवा का हर एक तिनका है यहाँ ।
लाली सी छायी है दिन के हर एक पहर।

प्यार ही प्यार फिजा में है आज इसकदर।

मीठी सी गुदगुदी हर एक जेहन में छायी है।
खुदा की खुदाई का लगता सा कोई असर।

प्यार ही प्यार फिजा में है आज इसकदर।

रास्ते तोहफे हैं, हर एक बात तोहफे सी है।
तोहफे सा बना ज़िंदगी का हर एक मंजर।

प्यार ही प्यार फिजा में है आज इसकदर।

प्यार को छुओ, देखो और जियो जी भर के तुम।
ना आएगा आज सा यह लम्हा फ़िर लौटकर ।

प्यार ही प्यार फिजा में है आज इसकदर।

Tuesday, February 12, 2008

कुरेदोगे हकीकत को जो कभी, तो रो पड़ोगे !!!

देखोगे हर चीज़ को नजदीक से, तो रो पड़ोगे.
कुरेदोगे हकीकत को जो कभी, तो रो पड़ोगे।

यह रिश्ते जो तुम निभाते हो हेर रोज यहाँ।
टटोलोगे तन्हाई में इनको कभी, तो रो पड़ोगे।

तुम खुश हो कि वो हस के मिलते हैं तुमसे।
जान जाओगे उनके इरादे कभी, तो रो पड़ोगे।

पूजते हो जिस मूरत को दिल के मंदिर में।
झाँका जो इंसान उसमें कभी, तो रो पड़ोगे।

बटोरते हो जिसे खरा सोना समझ ज़िंदगी भर।
परखा जो कभी उसे तुमने अगर, तो रो पड़ोगे।

जीतने का नशा बुरा है दीवानिगी कि हद तक।
हार का जशन जब भी मनाओगे, तो रो पड़ोगे।

बेवफाई का सिला भी नहीं दे सकते बेवफा को।
हस के मिलना भी चाहोगे अगर , तो रो पड़ोगे।

देखोगे हर चीज़ को नजदीक से, तो रो पड़ोगे।
कुरेदोगे हकीकत को जो कभी, तो रो पड़ोगे।

Monday, February 11, 2008

आज तन्हाई बोली !!!

आज तन्हाई बोली।
तुम उदास क्यों हो?
मुझसे नाराज क्यों हो?

मैंने न कभी तुमको धोका दिया है।
तुम जैसे हो तुमको अपना लिया है।

तुम मुझे तो बताओ।
कोई भी बात न छुपाओ।

मैंने हर बात तो तुम्हारी सुनी है।
कोई भी कमी न तुम में चुनी है।

मैंने हमेशा तुम ही को चाहा।
अक्स तेरा मेरे दिल में समाया ।

मैंने बेवफाई का नाम न लिया है।
और तेरा संग मैंने हमेशा दिया है।

आज तन्हाई बोली।

फिर तुम मुझे छोड़ कर आज क्यों जा रहे हो।
क्यों किसी पत्थर से फिर अपना दिल लगा रहे हो।



भावार्थ ....

खालीपन का शोर अब मुझे जचने लगा है !!!

तन्हाई का आलम यू अब पनपने लगा है।
खालीपन का शोर अब मुझे जचने लगा है।

जोड़ने में बिताये जो रिश्ते अभी तक
उन रिश्तों में कांटा सा कोई चुभें लगा है।

चू लेना चाहता था में जिस आस्मान को।
उसे आज फिर से सूरज निगलने लगा है।

हँसा था हर बात पे उसकी में जी भर के।
आज वहीं आँसू का सैलाब निकलने लगा है।

बदल दूंगा दुनिया यह सोचा था एक दिन.
हारकर मेरा मिजाज़ भी बदलने लगा है।

साथ सबके मैं चलने की रखता था चाहत।
तनहा सा मेरा जीवन अब चलने लगा है।

Friday, February 8, 2008

यू.एस, यू.एस करने वालो पहले जानो है "भारत" कौन?

ब्रांडेड जींस पहनने वालो पहले जानो था "गाँधी" कौन ?
सॉरी, हाय कहने वालो पहले जानो था "वाल्मीकि" कौन ?

पिज्जा बर्गर खाने वालो पहले जानो थी "अन्नपुर्णा" कौन?
जज्ज हिप हॉप सुनने वालो पहले जानो था "ध्रुपद" कौन?

सिडनी शेल्दन पढ़ने वालो पहले जानो था "पाणिनि" कौन ?
सालसा धुन पे नाचने वालो पहले जानो था "नीलकंठ" कौन?

क्लिंटन को चाहने वालो पहले जानो था "कौटिल्य" कौन?
हिटलर को यू चाहने वालो पहले जानो था "अशोका" कौन?

ओसो आश्रम जाने वालो पहले जानो था "महावीर" कौन?
टाय-टेनिक को देखने वालो पहले जानो था "भारत" कौन ?

आर्म एस्त्रोंग को जाने वालो पहले जानो "वरमिहिर" कौन?
ओप्रह- विनफ्रे को जानने वालो पहले जानो था "भ्रत्रिहरी" कौन?

कंप्युटर को चाहने वालो, पहले जानो था "आर्य-भट्ट" कौन?
प्लास्टिक सर्जरी करने वालो पहले जानो था "सुश्रुता " कौन?

हारवर्ड, कैम्ब्रिज करने वालो पहले जानो थी "नालंदा" कौन?
यू.एस, यू.एस करने वालो पहले जानो है "भारत" कौन?

Thursday, February 7, 2008

कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।
खाकी वर्दी पहन डाकिया ख़ुशी बाँट के जाता था।

पीला सा पोस्ट कार्ड या नीला अंतर देशी जब आये।
सफ़ेद लिफाफा, गोंद से चुपका प्यार उडेल के जाये ।

मामा का है ख़त सुनकर मेरी माँ का दिल भर आता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

आएगी दीदी सावन में सुनकर, माँ झूले को कस देती।
ठीक है भाई बॉर्डर पे, खबर ख़ुशी के आंसू भर देती।

मीलों दूर लिखे अल्फाजों का असर यहाँ दिख जाता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

ना आयीं दीदी कभी तो, लिफाफा राखी ले कर आता था।
उसपे से गांधी जी की स्टाम्प में झट करके छुटता था।

पहन राखी रखाबंधन को मैं फिर शौक से इठलाता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

ख़त ने हँसाया खुलकर तो ख़त ने रुलाया भी है जी भर के।
ख़त ने जताया खुलकर तो ख़त ने छुपाया भी है जी भर के।

दूर कहीं से ये कागज़ अपनों की खुशबु लाता था।
कुछ साल ही बीते जब घर पे मेरे ख़त आता था।

Wednesday, February 6, 2008

मैं रोता था जब भी स्कूल को जाता था !!!

मैं रोता था जब भी स्कूल को जाता था।
और रोते रोते माँ पर गुस्सा हो जाता था।

कालिख पूरी पुती नहीं, मैं क्यूँ जाऊं।
खडिया पूरी घुली नहीं , मैं क्यों जाऊं।

पट्टी पूरी चमकी नहीं, मैं क्यूँ जाऊं।
धारी उसपर खीची नहीं, मैं क्यूँ जाऊं।

ऐसे जाने कितने बहाने मैं रोज बनता था।
पर मैं रोता था जब भी स्कूल को जाता था।

मुझे पाठ याद नहीं , मास्टर जी मारंगे
मुझे पहाडे याद नहीं, मास्टर जी मारेंगे।

कुरते पे सिलवट हैं , मास्टर जी मारंगे।
बालों मैं कंघी नहीं है , मास्टर जी मारंगे।

अपनी माँ को मैं हर रोज यू ही सताता था।
पर मैं रोता था जब भी स्कूल को जाता था।

हाथ मैं कंघी लिए वह मेरी सब बाते सुनती।
हाथ थोडी पर रख , वह बस कंघी करती रहती ।

फिर मेरे आंसूओं को अपने पल्लू से हटाती थी।
नज़र से बचने को माथे पे काला टीका लगाती थी।

उस भोली को मैं अपनी हर बात बताता था।
पर मैं रोता था जब भी स्कूल को जाता था।

भूखा न रह जाऊं यही बात उसे सताती थी।
सोच यही चुपके से जेब मैं रेबडी रख जाती थी।

रोटी का लत्ता वह फटाफट थेले में रखती।
और जल्दी से दूध को थाली मैं ठंडा करती।

बड़ा हो जाऊँगा मैं ये सोच पूरा दूध पी जाता था।
पर मैं रोता था जब भी स्कूल को जाता था।

Monday, February 4, 2008

पशेमानी- कैफी आज़मी (One of the best)

मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे
के वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
हवाओं मे लहराता आता था दामन
के दामन पकड़ के बैठा लेगी मुझको

मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया
ना अवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया
ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक के उस से जुदा हो गया मैं....

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई।
जली लौ को फिर से बुझा दे कोई।

वो लुटती रही जिनके लिए एक तमाशा बन कर ।
उन मर्दो को किन्नर बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

जो लेते हैं जान, खुदा के रहनुमा बन कर।
उन्हें काश काफिर बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

बनाने मैं लगे हैं जो अतीमों की दुनिया ।
उनका अपना चिराग भी बुझा दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

नशा बेच कर जो छीन लेते है रिश्ते ।
उनके सर से रिश्तों की छाया उठा ले कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

गर यही है आदमी की घिनौनी हकीकत।
तो उस आदमी को पत्थर बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

बेच बैठा है जो सरे बाज़ार मैं इमां ।
उसे फिर से मुसलमाँ न बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

लकीरें खीच जो बनाते है जो फासले दिल मैं।
उनका नामोनिशां भी आज मिटा दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

Sunday, February 3, 2008

कली ने एक भ्रमर का सपना देखा !!!

कली ने एक भ्रमर का सपना देखा।
सपनों को यूँ उसने हकीकत बनते देखा।

बसंत आ गया, डाली डाली पर फूल बिखरे हैं ।
अपने यौवन को भी उसने आज उमड़ते देखा।

ऎसी खुमारी छाई है , हर एक जर्रे पे सजाने की ।
हर फूल को उसने रंगो से फिर सवरते देखा ।

भ्रमर का झुंड जब भी मद आवाज मैं निकले।
अपने अरमानों को हर बार उसने मचलते देखा।

आज जब भ्रमर पास से गुज़रा बिन कुछ कहे ।
तो फिर उसने जा कर बार बार आईना देखा।

शृंगार कर फिर लौटी जल्दी से वह तो ।
सोचने लगी उसने आज उसको क्यों नहीं देखा।

भ्रमर जब किसी और कली की गली से गुज़रे भी गर।
ईर्ष्या का बीज उसने अपने भीतर उपजाते देखा।

वह दिन भी आया कानो मैं आई घुन-घुन सी ले ।
उसने भ्रमर को पहले बार खुलकर आँख भर देखा।

कुछ नहीं बोला, वो लबों से आज फिर न जाने क्यों।
उसने मनचली आखों को ही हर बात बुनते देखा।

आज भ्रमर ने पास आने का संदेसा हवा को भेजा।
तो फिर उसने बाकी कलियों को आज जलते देखा।

शाम रंगीन, मद्धम हवा, नीला आसमान था उस रोज।
उसने तारो को भी उस दिन खुलकर चमकते देखा।

सामने जब भ्रमर आया, उसकी पूरी दुनिया बनकर ।
उसने को खुद को फिर वहाँ हया में लिपटते देखा।

ये कहूंगी, ऐसे कहूँगी क्या क्या सोचा था उसने ।
अपने आप को कुछ अल्फाज पे सिमटते देखा।

वो भी सहमा सा था आज उस कली से मिल कर।
अपनी हालत से उसने, उसको भी फिर गुजरते देखा।

में कहाँ फूल कि कली और वो गूंजे का भवरा।
लेकिन आज उसको वहाँ उसने अपने सा बनता देखा।

कली ने एक भ्रमर का सपना देखा।
सपनों को यूँ उसने हकीकत बनते देखा।

Saturday, February 2, 2008

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत की है !!!

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत की है।

हाथ में हाथ लिए फिरे जिन रास्तों पेर।
उन्ही रास्तों ने आज हमसफ़र की शिकायत की है ।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

मेरे जिस काँधे पर रह है हमेशा तेरा सर।
उसी काँधे ने आज सहारे की शिकायत की है।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

जिस मखमली रुई ने दो रूहों को महसूस किया अब तक।
आज उसी बिस्टर ने सिल्वाटों की शिक़ायत की है।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

सर्दियों कि जिस धुप मैं तुमने सुने है मेरे गम सारे ।
उसी धुप ने आज परछाई की शिक़ायत कि है।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

वो प्यार भरे ख़त जो तुने लिखे छुप कर मुझे ।
उन्ही खतों ने आज लिखावट कि शिक़ायत की है।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

मकान से घर बन गए तुम जिसको ।
उसी घर ने आज वीराने की शिक़ायत की है।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

तुमसे मिलने से पहले सवर हूँ जिस आईने मैं।
उसी आईने ने आज अजनबी की शिक़ायत की है।

मेरे आगोश ने तन्हाई कि शिक़ायत कि है।

Friday, February 1, 2008

ऐसा क्या जुर्म करूं कि सजाये मौत मिल जाये।

ऐसा क्या जुर्म करूं कि सजाये मौत मिल जाये।
हो जाएँ दूर ये गम सारे और तन्हाई मिट जाये ।


पहले आत्मा का कत्ल मैंने कल रात किया।
सरे आम चाकू उसके सीने मैं भोंक दिया।
आज भरे बाज़ार में जमीर बेच बैठा हूँ।
फिर भी दुनिया ने नहीं कोई इल्जाम दिया ।

मैंने सोचा....

ऐसा क्या जुर्म करूं कि सजाये मौत मिल जाये।
हो जाएँ दूर ये गम सारे और तन्हाई मिट जाये ।

फिर मैं सपनों का गला घोंट भाग निकला
जहाँ पंहुचा वहाँ फिर वोही अरमां निकला
जूनून है यह सपनों का वादा भी इसकदर ।
हिम्मत कि अदालत में फिर से मैं पाक निकला ।

फिर सोचा ...

ऐसा क्या जुर्म करूं कि सजाये मौत मिल जाये।
हो जाएँ दूर ये गम सारे और तन्हाई मिट जाये ।


तब मैंने दोखा देने का जुर्म भी दोस्तो से किया।
छोड़ के मझदार मैं, अपने रस्ते मैं हो लिया।
दोस्त भी मेरे नेक निकले इस हद तक ।
हंस के पुरानी दोस्ती को फिर याद किया।

फिर सोचा...

ऐसा क्या जुर्म करूं कि सजाये मौत मिल जाये।
हो जाएँ दूर ये गम सारे और तन्हाई मिट जाये ।

आख़िर बेवफाई ही बची थी वह भी कर के देखी।
शक का बीज बोया प्यार में , दिल्लगी कर देखी।
उस हमसफ़र ने भी मेरे बद रूप को नहीं नकारा।
जान भूझ कर कर दे मेरी गलती कि अनदेखी ।

अब मैं सोचता हूँ....

ऐसा क्या जुर्म करूं कि सजाये मौत मिल जाये।
हो जाएँ दूर ये गम सारे और तन्हाई मिट जाये ।