Monday, January 28, 2008

जीत कि ख्वाइश में वजूद खो कर मैंने , हार कर हार से दोस्ती कर ली।

जीत कि ख्वाइश में वजूद खो कर मैंने , हार कर हार से दोस्ती कर ली।
दिन के शोर से मजबूर हो कर मैंने , रात के सन्नाटे से दोस्ती कर ली।
हर चौराहे पे अपनी मंजिल को बटोहा हैं मैंने
न मिली मंजिल तो फिर मैंने , उन्ही चौराहों से आख़िर मंजिले दोस्ती कर ली

काफिले इतने लंबे हो गए हैं कि हमसफ़र, छूट ने लगे हैं अब मुझसे।
हँसने कि चाहत में गुद-गुदी के सभी कौने , भरने लगे है अब गम से ।
जीने के भरम में जान गवां भैठा मैं नादाँ, क्यूँ अपने आप से मैंने ये दिल्लगी कर ली।
जीत कि ख्वाइश में वजूद खो कर मैंने , हार कर हार से दोस्ती कर ली।

हौसलों के भी आख़िर अरमान होते हैं, ना जाने क्यों भूल गाया था मैं ।
कोशिशों के भी अपने सरे पैमान होते है, ना जाने क्यों भूल गया था मैं ।
अब बस यह कोशिशें ही मुझको मंजिल सी लगती हैं
न मिलेगी अब मुझे मंजिल कभी शायद, यही सोच कर मैंने कोशिशों से दोस्ती कर ली।
जीत कि ख्वाइश में वजूद खो कर मैंने , हार कर हार से दोस्ती कर ली।

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